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कुवलयमाला-कथा हे लोकनिर्मुक्त आपको नमन है। हे द्वेषवर्जित आपको नमन है। हे जितमोहेन्द्र आपको नमन है। हे ज्ञानभास्कर आपको नमन है।। ६७।। ऐसा कहता हुआ भूपति शयनीय पलङ्ग से उठ खड़ा हुआ। तब जिनेन्द्रों को नमन हो इस तरह बोलती हुई बडबडाहट के साथ गङ्गा तट के तुल्य शैय्या से उठकर कुवलयमाला ने पति से कहा-"इतनी देर तक भूपतिजी ने क्या चिन्तन किया?" राजा बोला-"पृथ्वीसार कुमार को राज्य पर निविष्ट करके प्रवज्या ग्रहण से अपने आपको साधूंगा।" उसने कहा- "जब विजयपुरी में हम दोनों निकले थे तब प्रिय आपने प्रवचन देवता को निवेदन किया था कि "हे भगवती! यदि मैं जीते हुए पिताजी को देख लूँ और राज्याभिषेक को प्राप्त कर लूँ तो बाद में पुत्र को राज्य पर निविष्ट करके व्रत ग्रहण कर लूँगा तो देवि! आप उत्तम शकुन करो" ऐसा कहने पर आपको किसी व्यक्ति ने छत्र भेंट किया था। तब आपने कहा था-“हे प्रिये! यह शकुन उत्तम है। सारी सम्पत्ति
और सन्तति हमको होने वाली है। यह बात सत्य हुई, अब प्रवज्या-पालन का ध्यान करना उचित ही है, धर्म की गति त्वरित होती है। अतः हे देव! विलम्ब कैसे? शीघ्र ही आत्महित सम्पादित किया जाय।"
जिससे जो चिन्तन किया गया है उसे कार्यरूप में परिणत किया जाय, राजा बोला –"हे देवि! यदि ऐसा है तो कहीं गुरुओं का विलोकन किया जाय।"
तब प्रात:कालीन कृत्य करके भूनायक ने उसी दिन पृथ्वीसार कुमार को राज्य पर अभिषिक्त करके दूसरे दिन गगनमणि सूर्य के गगन के मध्य आरूढ हो जाने पर दो साधुओं को भिक्षा के लिये भ्रमण करते हुए को गली में देखकर महल से उतर कर सुखासन पर अधिरूढ हुए और कुछ व्यक्तियों से आवृत हुए जाकर प्रणाम करके कहा "आप दोनों की काया निरामय है?" साधु बोले"गुरुजी के चरणों के स्मरण से पवित्र अन्त:करण वाले हम दोनों का कुशल है।" राजा बोला-"गुरुजी का क्या नाम है?" उन दोनों ने कहा-"इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न, गुरुजी से विनयपूर्वक समस्त शास्त्रार्थ प्राप्त और कामदेवरूपी सर्प के लिए गरुड़ बने हुए दर्पफलिक नामक हमारे गुरु हैं।" राजा बोला- "क्या वे हमारे सम्बन्धी रत्नमुकुट राजर्षि के पुत्र दर्पफलिक हैं अथवा अन्य कोई?
चतुर्थ प्रस्ताव