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कुवलयमाला-कथा रजोहरण जिसका करकमल बन गया- ऐसे उस विगतादर नरेश्वर की पुरन्दर महेन्द्र भी सादर स्तुति करता है।। ३६ ।। स्वयं स्वामी जगन्नाथ कृपालु पाथोनाथ जिनेश्वर ने सभा में इसी धर्म का आदेश दिया था।। ३७।। इस धर्म में स्थित साधुओं को भी मैंने देखा है जो केवल-ज्ञान उत्पन्न करके महोदय पद को प्राप्त हुए।। ३८।। इस कारण हे पिताजी! आपको निवेदन किया जाता है कि जैनधर्म सुशर्म-दायक है और सभी धर्मों में यही मनोरम है।। ३८।। दुर्वारवारणों से आकीर्ण और उन्नत तुरङ्गमों से युक्त राज्य भी बहुत हो किन्तु वह जिन कथित धर्म तो नहीं है।। ४० ।।
तो हे देव! आपने यह भवतापहर्ता दुर्लभ जिनधर्म प्राप्त किया है, अतः आप निपुणता से इसका पालन करें।" राजा ने 'तथास्तु' यह स्वीकार कर कहा-"अहो, सचमुच ही यह धर्ममार्ग दुलर्भ है, हम पके केशों वाले हो गये, परन्तु धर्मों का भेद हमने नहीं जाना। हे तपोधनों! हम आदरणीय आपका स्थान नहीं जानते।" गुरुजी बोले-"राजन्! कुसुमगृह चैत्य में है।" राजा ने कहा"आप अपने स्थान पर पधारिये और कर्म कीजिये, मैं प्रातः आऊँगा।" इस प्रकार कहता हुआ कुमार और महेन्द्र के साथ राजा उठ खड़ा हुआ और साधुओं ने भी अपने स्थान को अलङ्कृत कर दिया। तब दृढवर्मा ने अवशिष्ट भाव स्वरूप को माया गोलक की भाँति, इन्द्रजाल के समान, दर्पण के प्रतिबिम्ब के तुल्य नेत्र रोगी द्वारा रात्रि में वरजोड़ी को देखने के सदृश मरुमरीचिका के समान की तरह, गन्धर्वपुर अवलोकन के तुल्य अविचारित सौन्दर्य के सदृश अकिञ्चित्कर और अनुपयोगी विचार कर उत्पन्न वैराग्यवाला होकर कुवलयचन्द्र को सप्ताङ्ग राज्य दे दिया और उसको शिक्षा दी-'वत्स कुवलयचन्द्र! युक्त और अयुक्त को जाने हुए सर्वशास्त्र- समूह को पढ़े हुए तुमको शिक्षा देना श्वेत को श्वेत करने, पिसे हुए को पीसने और अलङ्कृत को अलङ्कृत करने के जैसा ही है परन्तु पुत्रप्रीति मुझे मुखरित कर रही है"
स्त्रियाँ और श्री दुरन्त, दुरितोपाय और चपल एवम् अचपल होती है अतः तुम कहीं इनके वशंवद मत हो जाना।। ४१ ।। उन्नत पद प्राप्त कर सदा कार्यवेत्ता तुमको गुरुजनों को कभी लघु नहीं देखना चाहिये।। ४२ ।। क्योंकि प्रजारूपी लतायें नीतिरूपी जल से सींची हुई फलदायक होती हैं।। ४३ ।। अन्तरङ्ग छः
चतुर्थ प्रस्ताव