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________________ कुवलयमाला-कथा [183] अन्तर्धान हो गयी। यह देख कर प्रमुदित नरेश ने प्रात:काल कुमार को बुलाकर सारा ही रात्रि का वृत्तान्त बता दिया। तब पिता की आज्ञा से कुमार वहाँ लिपि को बाँचने में प्रवृत्त हुआ ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीन मोक्षमार्ग के उत्तम साधन और कल्याण के मार्ग हैं।। ३२ ।। जिसमें हिंसा, असत्य, स्तेय नहीं होता है, ब्रह्म का पालन होता है, शरीरधारणोचित परिग्रह किया जाता है, रात्रिभोजन का त्याग होता है।। ३३ ।। जहाँ समस्त दोषों से विनिर्मुक्त महाव्रतधारी जिनेश्वर देव धर्मोपदेशक गुरु होते हैं।। ३४।। और पूर्वापर से अविरुद्ध श्री शिवसङ्गम कराने वाला आगम होता है वही मुक्ति प्रदाता धर्म है- इससे विपरीत तो संसार में भ्रमण कारक है।। ३५ ।। ___ इस प्रकार धर्म के स्वरूप के बाँचे जाने पर राजा ने कहा-"अहो! भगवती कुलदेवता ने हमें अनुगृहीत किया है। यह फिर ज्ञात नहीं होता है कि वे धर्म पुरुष कौन हैं जिनका यह धर्म है।" कुमार बोला-“दर्शनों को बुलाकर धर्म की पूछ की जाती है, जिस किसी का धर्म इस लिपि से मेल खाता है वही साध लिया जाय।" तब राजा ने दर्शन प्रधान पुरुषों को आहूत करके और यथास्थान विराजमान करके उनसे धर्म पूछा। सभी ने अपने आगमों के अनुसार धर्म का स्वरूप बता दिया, परन्तु उसके चित्त में वह नहीं बैठा। तब राजा ने जैन-मुनियों से पूछा-"आप अपना धर्म निवेदित कीजिये।' तब गुरुजी ने "जिस धर्म को कुलदेवता ने बताया है वही धर्म धर्मसार है" ऐसा निरूपित किया। तब राजा ने कुमार को देख कर कहा-"यह ठीक ही है मोक्ष के मार्ग को बताने में समर्थ। सभी धर्मों में यही मुख्य है। इसी को कुलदेवता ने दिया है। इक्ष्वाकुओं का यही कुलधर्म है।" कुमार ने निवेदन किया-"जब मैं अश्व पर आरूढ हुआ तब इसी धर्म के बोध के लिये देव द्वारा मैं अपहृत किया गया था। मैंने अरण्य में पूर्वजन्म में मिले देवों का दर्शन किया- वे पूर्वजन्म में भी इसी धर्म की आराधना करके स्वर्ग में गये। उन्होंने भी यह धर्म बता कर कुवलयमाला को बोध कराने हेतु मुझे भेजा है और जिस शुक ने उस देश में गये हुए हमारी प्रवृत्ति को आपके सम्मुख निवेदित किया उसने भी इसी सार्वज्ञ धर्म को देखा है। चतुर्थ प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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