________________
[182]
कुवलयमाला-कथा कुमार! मैं पुण्यवान् हूँ जिसका तुम्हारे जैसा पुत्र है। आज ही चिरसञ्चित मनोरथरूपी रथ प्रमाणकोटि पर आरूढ हुआ है। आज से तुम ही राज्यभार के वाहक हो।"
तब अत्यन्त प्रीति के साथ रोमाञ्चित राजा ने राज्यप्रधान के सम्मुख पुत्र को शिक्षा दी।। २६ ।। अपने गुणों से राज्यभार के श्रेष्ठ वाहक तुम्हारे होने पर भी हे वत्स! आज भी मैं परलोक नहीं साध रहा हूँ उससे मुझे लज्जा है। यौवन प्राप्त तुम्हारे द्वारा पृथ्वी की रक्षा किये जाने पर हे वत्स! आज क्षीण यौवन वाले मेरे द्वारा वन में जाना उचित है।। २८ ।। परन्तु अभी कर्मफल का योग जब तक मेरे लिये अवशिष्ट है तब तक तुम मेरे राज्य कार्य में सहकारी बनना।। २९।।
कुमार ने भी चरणों में प्रणाम कर कहा-"जो कुछ पूज्य पिताजी स्वयं आदेश देते हैं, उसे मुझे अवश्य करना है।" तब कुवलयमाला के साथ उसको अभिनन्दित किया। तदनन्तर युवराजपद का पालन करता हुआ कुमार गुणों से सभी का सम्मान्य होगया। और भी
उसके सस्मित निरीक्षणों आचरणों और भाषणों से समस्त ही राजलोक सदा आनन्द की भूमि हो गया।। ३० ।। जिस प्रकार जलधर अपनी अखण्ड जलधाराओं से धरा को तृप्त कर देता है, उसी प्रकार इस कुमार ने भी अर्थराशि से प्रार्थिवृन्द को अत्यन्त सार्थक कर दिया।। ३१ ।।
तत्पश्चात् सानन्द कुछ समय बीतने पर राजा ने कहा-“हे वत्स कुवलयचन्द्र! यह मेरा समय धर्मसाधना करने का है, तो मैं इसे करता हूँ।' कुमार बोला"महाराज! आपने ठीक कहा, पर एक पुनः निवेदन करता हूँ कि धर्म कुलोचित ही करना।" राजा ने कहा-"धर्मोपाय तो बहुत हैं। यह कुलोचित क्या है?" कुमार बोला-" जिसको पूर्वज इक्ष्वाकुवंशजों ने किया वही उचित है।' यह सुनकर धर्म की परीक्षा के लिये देवतागृह में कुलदेवता श्री की आराधना की। तब उस राजा के कुसुमासन पर बैठे हुए के छः प्रहर बीत गये। इसके अनन्तर गगनतल में वाणी हुई 'हे नरेश! यदि आपको धर्मसार से कार्य है तो इक्ष्वाकुवंशियों के कुलधर्म को ग्रहण कर लो।' इस प्रकार कहती हुई कुलदेवता श्री प्रत्यक्ष होकर ब्राह्मीलिपि से युक्त एक सुवर्णपट्टिका सौंप कर
चतुर्थ प्रस्ताव