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कुवलयमाला - कथा
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शत्रुओं को जीतने के लिये शास्त्र में और बहिरङ्ग शत्रुओं को शान्त करने के लिये शस्त्र में तुमको आदर करना चाहिए ।। ४४ । । विद्या से पवित्र वृद्ध जनों की सदा तुमको आराधना करनी चाहिए, व्यसनरूपी समुद्र में डूबने वालों को तारने वाली वृद्धसेवा ही होती है ।। ४५ ।। न्याय और गोभक्तों से पुष्ट की गयी कामधेनु राज्यश्री राजाओं के लिये कामरूपी दुग्ध का पर्याप्त मात्रा में उत्पादन करती है ।। ४६ ।।"
यह शिक्षा देकर दीनजनों को दान दिया, स्वजनों से सम्मानित हुआ और चैत्याष्टाहिका मह किये हुए राजा ने पुत्र द्वारा बनवायी हुई शिविका में आरूढ होकर कुसुमगृह चैत्य जाकर उन्हीं गुरुजी के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करली | उसके आगे करुणावान् गुरु ने मनुष्यजन्म पर युग-समिला और परमाणु के दृष्टान्त निरूपित किये
समस्त द्वीप वारिधियों के परे गोलाकार में बना हुआ स्वयंभूरमण नामक एक महोदधि है ।। ४७ ।। किसी देव ने प्राची दिशा में युग और प्रतीची दिशा में समिला की स्थापना की । वह समिला वहाँ अतल स्पर्शी जल में गिर गयी ।। ४८।। उस अपार और अनिवार जल में चारों ओर चल और अचल बनी हुई वह समिला चलाचल योग से किसी भी प्रकार योग नहीं प्राप्त करती।। ४९ ।। प्रचण्ड वात से बनी तरङ्गों से प्रेरित वह किसी भी प्रकार युग से योग जैसे नहीं प्राप्त करती वैसे ही जन्तु भी नरजन्म नहीं प्राप्त किया करता है ।। ५० ।। ( यह युगकपिला का दृष्टान्त है )
किसी देव ने एक महान् स्तम्भ को चूर्णित करके दृष्टि निक्षेप के समान बैठने के लिए उससे शिलासन बनाया ।। ५१ ।। उस चूर्ण को लेकर शीघ्र सुराचल पर जाकर और चूलिका पद स्थापित करके एक नलिका अपने हाथ में ली ।। ५२ ।। उससे जोर से फूँक करके उन सभी अणुओं को चारों दिशाओं में गिरा दिया।। ५३ ।। कल्पान्तकाल में उत्पन्न वायु से आहत हुए वे सभी अणु तत्क्षण उसके देखते-देखते अदृश्य हो गये ।। ५४ ।। सुराचल से भ्रष्ट हुए उन परमाणुओं से वह देव भी पूर्ववत् उन्हें नहीं कर सकता ।। ५५ ।। उसी प्रकार दुष्कर्मवशात् मनुष्य जन्म में भ्रष्ट हुआ जन्तु पुनः निष्तुष मनुष्यजन्म नहीं प्राप्त करता है ।। ५६ ।।
चतुर्थ प्रस्ताव