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कुवलयमाला-कथा के योग से सुवर्ण निर्मित कर दिया। प्रमुदित हुए उन सभी ने निवेदन किया"देव! आज से आप ही हमारे गुरु हैं। हम तो आपके शिष्य ही हैं, अतः विद्यादान की कृपा कीजिये।" उनकी की गयी भक्ति से सन्तुष्ट चित्त वाले कुमार ने उनको योनिप्राभृतग्रन्थ के कई प्रयोग बताये। कुमार ने कहा "मैं जाता हूँ, आपका मङ्गल हो। जब कभी तुम अयोध्या में कुवलयचन्द्र भूपति को सुनो, तब सत्वर ही चले आना।' इस प्रकार कहता हुआ कुमार कटक-सन्निवेश में जगी हुई कुमार के दर्शन नहीं होने से महान् दुःख को धारण करती कुवलयमाला के सामने पहुँच ही गया। तब प्रमुदित हुई उसने कहा-“हे देव! आप कहाँ गये थे?" तब कुमार ने उसे धातु-वादियों का सारा वृत्तान्त कह दिया। तब नि:श्वास के शब्द से पटु पटह की ध्वनि मङ्गलपाठकों द्वारा पठित स्तोत्र आदि को विगत होने वाली रात्रि की सूचक मानकर कुमार ने कहा"हे प्रिये! रात्रि प्रभातप्राय है। निशापति चन्द्रमा भी क्षीण किरण वाला हो गया है और कुक्कुट मण्डली भी मन्द मन्द रव कर रही है। इस समय देव-गुरुबान्धव निमित्त कार्य किये जाते हैं?" यह कहता हुआ निर्मल जल से धोये हुए मुख कमल वाले कुमार ने श्रीयुत गृहचैत्य में प्रवेश करके देवाधिदेव की इस प्रकार स्तुति प्रारम्भ की
धर्म बोध कराने वाले जिनेन्द्रों का सुप्रभात हो और कर्म समूह रूपी मेघों का घात करने वाले सिद्धों का सुप्रभात हो।। १७।। धर्म की व्याख्या करने वाले गुरुओं का सुप्रभात और फिर जिन के प्रति स्तुति प्रदर्शित करने वालों का सुप्रभात हो।। १८ ।। सभी साधुओं का साधु-सम्मत सुप्रभात हो और पुनः उनका सुप्रभात हो जिनके हृदय में जिनोत्तम विराजते हैं।। १९ ।।
इस प्रकार की स्तुति करके सुखासन पर आरूढ हुई कुवलयमाला के साथ उत्तर गज पर आरूढ हुए कुमार ने विविध अश्वों के खुरों से विदीर्ण की गयी मही से उड़ती हुई बहुत सारी धूलि के कणों से सकल दिग्मण्डलों के मुखों के रुक जाने से सूर्य के प्रकाशित न होने पर दुर्दिन हो जाने की शङ्का से सहर्ष मयूरों के नृत्यों से सुशोभित वनान्तर में संचलन किया। निरन्तर प्रयाण करते हुए कुमार ने अयोध्यापुरी के परिसर को अलङ्कृत किया। उसको आया हुआ सुनकर तात्कालिक अधिक प्रमोद के वश उत्पन्न रोमाञ्चों से कवचित हुआ
चतुर्थ प्रस्ताव