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कुवलयमाला-कथा
[179] तदनन्तर हाहाकार करता हुआ वयस्कवर्ग और परिजनवर्ग सिंहनरेश के समीप आया। उन देव ने उस प्रदेश से लाकर मुझे इस निर्जनवन में छोड़ दिया है। अब फिर किसी आचार्य को ढूँढ रहा हूँ जिसके पास रहकर तपस्या करूँ।" यह सुन कर कुमार ने कहा- "अहो, यह वृत्तान्त तो महान् विस्मयकारी है।" तब महेन्द्र ने सम्यक्त्व ग्रहण किया। कुमार भी महेन्द्र और कुवलयमाला के साथ आवासस्थल पर आकर कृतकृत्य बना हुआ रात्रि में सो गया। वहाँ से फिर निर्मल गगनाङ्गन में तारागण के तिरोहित हो जाने पर सूर्योदय हो जाने पर प्रस्थान किये हुए कुमार ने विन्ध्याचल के निकट आकर वास किया। वहाँ वह कुमार दिन और रात्रि का कृत्य सम्पन्न किया हुआ होकर कुवलयमाला के साथ पलङ्ग पर सो गया।
__ तब अर्धरात्रि में ज्यों ही जगा त्यों ही विन्ध्याचल की गुफा के भीतर जलती हुई अग्नि को देख कर नाना शङ्काओं से व्याकुल होगया-'अरे, यह क्या, क्या यह दवाग्नि है अथवा अन्य कुछ। यहाँ पास में घूमते हुए कुछ पुरुष दिखायी देते हैं क्या ये राक्षस हैं या पिशाच?' तो आगे होकर देखता हूँ कि यह क्या जलता है और ये पुरुष कौन हैं?' देर तक यह विचार कर चुपचाप पैर रखता हुआ कुमार उठ खड़ा हुआ और पलंग पर सोयी हुई कुवलयमाला को छोड़ कर खड्ग लिया हुआ और कटि पर तलवार बाँधा हुआ पहरेदारों को वञ्चित करके जाने को प्रवृत्त हुआ। फिर उसने अग्नि के निकट धातुवाद की बात करते हुए पुरुषों को देखकर सोचा कि ये पुरुष तो धातुवादी हैं, इनके सामने मैं अपने आपको प्रकट करूँ या नहीं? सम्भवतः कातर हृदय वाले ये बेचारे मुझे दिव्य समझकर भयभीत बने हुए नष्ट हो जायेंगे या विपत्ति में पड़ जायेंगे, तो मैं यहाँ ही स्थित हुआ इनकी बातें सुनूँगा।' तब उधर वहाँ उन्होंने भी कहा-'आज समस्त कल्क विघटित हो गया है, तो अब क्या करना चाहिये? अब अन्य क्या करना है' ऐसा कहते हुए चल दिये। कुमार ने सम्बोधन किया "हे हे नरेन्द्रों! क्यों जा रहे हो? उन्होंने कहा "आपके भय से।" कुमार ने कहा- "आपको भय कैसे? मैं भी आपके मध्य नरेन्द्र हूँ, तो सारी बात बताओ।" तब उन्होंने कहा-'दिन-रात हमने सुवर्ण की भ्रान्ति में आध्मान किया, पर सारा ही भस्म हो गया।' तब साहस का सहारा लेकर देवगुरु के चरणों का अन्तः करण से स्मरण किए हुए कुमार ने उनके सामने उसी औषध
चतुर्थ प्रस्ताव