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कुवलयमाला-कथा वैराग्य होने का क्या कारण है?" वे दोनों बोले-"भगवन्! हम दोनों के वैराग्य का कारण दरिद्रता ही है, अन्य नहीं है।" साधु ने भी कहा-"अरे वणिजों! आप दोनों निर्वेद कर के प्राण त्याग मत करो। वे बोले-“हे यतीश्वर! बताओ, दूसरे जन्म में भी हमको दरिद्रता कैसे नहीं होगी?" भगवान् ने कहा-"यदि आप दोनों दीक्षा अङ्गीकार करके तपस्या करो तो फिर इस प्रकार दुःख के भाजन नहीं बनोगे।" वे बोले- “ऐसी कृपा की जाय।" तब उस मुनि ने जैन विधि से हे कुमार! उनको प्रवज्या दे दी। प्रव्रजित बने हुए इन दोनों को ही मैंने चित्रपट में लिखा है। तब वे दोनों दुष्कर तपस्या करके समाधि से मरकर देवलोक को प्राप्त हुए। उन दोनों में फिर एक आयु के क्षीण हो जाने पर स्वर्ग से च्युत होकर पारापुरी सिंह भूपति का पुत्र भानु नामक हुआ और वह इस उद्यान में तुम हो, फिर जो दूसरा वणिक् है वह मैं हूँ। यह चित्रपट लिखकर आप दोनों को बोध कराने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। तो हे भानुकुमार! जागो, मोह मत करो, यह भवसागर भीषण है, लक्ष्मी चञ्चल है, विपत्तियाँ हाथ में पड़ी हैं, दरिद्रता दुःसह है।" यह सुनकर ऊहापोह करता हुआ भानुकुमार सहसा ही मूर्च्छित हो गया। उसको जातिस्मृति हो आयी। परिजनों ने और साथियों ने शीतल जल, कदलीदल की हवा आदि से उसको समाश्वासित किया। तब स्वस्थचित्त वाले भानु ने अनुभूत किये गये पूर्ववृत्त को देख कर कहा- "हे नाथ! आप सर्वदा मेरे गुरु हैं, आप ही मेरे शरण हैं- जिन्होंने मुझे अभी जैनमार्ग में प्रेम से प्रवृत्त कर दिया है।"
इस प्रकार कहता हुआ ज्यों ही मैं उनके चरणों की शुश्रूषा में एक क्षण तत्पर हुआ त्यों ही उपाध्याय ने पताकामाला से सुशोभित विविध मित्रों द्वारा रत्नों से निर्मित विमान में मणियों से जटित कुण्डलों की और गले में लटके हार एवम् उत्तम देह की दीप्ति से दशों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए, सुन्दर मुकुट से विराजमान और विमान में बैठे हुए अपने आपको प्रकट करके कहा"भानुकुमार! देख लिया तुमने इस संसार महीचक्र के विस्तार को।" तब उसको देखने से पैदा हुए वैराग्य वाला और पूर्वजन्म का स्मरण किया हुआ तत्क्षण ही मैं आभरणों का त्याग कर स्वयं ही मस्तक पर पञ्चमष्टि परिमित केशलुञ्चन किया हुआ उन देव से दिये गये रजोहरण, पिच्छी और मुखवस्त्रिकाप्रतिग्रहादि वस्तुओं को ग्रहण किया हुआ उद्यान से निकल गया।
चतुर्थ प्रस्ताव