________________
कुवलयमाला-कथा
[177] करते हुए मैंने कहा-"अहो! आपने यदि यह चित्रपट लिखा है तो आप मनुष्य नहीं हो। इस दिव्यचित्रपट के मिस से कोई दूसरा ही कारण सोचने वाले आप देवलोक से आये हुए देव हैं।" यह कहते हुए मैंने उनके पास दूसरा चित्रपट देखकर कहा-“अहो उपाध्याय जी! यह चित्रपट तो उस संसारचक्र से भिन्न है, तो इसका भी मुझे प्रत्यक्षीकरण कराओ।" यह सुनकर कलाचार्यजी ने कहा-"कुमार! मेरे ही द्वारा लिखे गये इन दोनों वणिजों के भिन्न स्वरूपवाले चरित को आप देखो। यह चम्पापुरी लिखी गयी है। यहाँ ये महाराज चित्ररथ हैं और यह धनमित्र नामक वणिक् है। उनकी भार्या देवी है। उनके दो पुत्र हैं धनमित्र और कुलमित्र। इनके जन्म के पश्चात् तभी पिता मृत्यु को प्राप्त हो गये। सारा ही धन समाप्त हो गया। तब माता के द्वारा कष्ट से बड़े किये गये ये दोनों यौवन को प्राप्त हुए। माता ने कहा-"तुम दोनों व्यवसाय करो।" तत्पश्चात् उन्होंने वाणिज्य, कृषि, दूसरों के घर पर कर्मचारी का कार्य, प्रत्येक घर पर प्रार्थना (भिक्षा), सागर पार करना, पर्वत पर आरोहण, निरन्तर खान खोदना, धातुवाद, द्यूतक्रीडा, स्वामिसेवाप्रवर्तन, विवरयक्षिणी- साधना, गुरु से बतायी गयी मन्त्रसाधना-इत्यादि प्रकार से धनोपार्जन के लिए कष्ट सहे, किन्तु एक कौड़ी की भी उत्पत्ति नहीं हुई।
तब अत्यन्त दुःखी हुए उन्होंने सङ्कल्प किया, ‘धिक्कार है, धिक्कार है हमारे जीवन को। जो कोई भी उपाय प्रारम्भ किया जाता है, वह सारा ही पूर्वकृत दुष्कृत्यों के वश बालुका से पिण्ड बनाने के समान, खलप्रीति के तुल्य, अञ्जलि में गृहीत जल की तरह, वायु से प्रेरित मेघमाला के सदृश विलीन हो जाता है। तो सर्वथा दुःखसमूह के मन्दिर इस जीवन को धारण करना व्यर्थ है, तो किसी ऊँचे पर्वत के शिखर पर चढ़कर अपने आपको गिरा देते हैं, यह विचार कर वे दोनों उस शिखर पर चढ़कर इस प्रकार बोले-'हे पर्वत ! तुम्हारे शिखर से पतन के साहस से हम दोनों अग्रिम जन्म में दरिद्रता के दुःख के भाजन न बनें यह कह कर वे दोनों ज्यों ही अपने आपको छोड़ने लगे त्यों ही उन दोनों को 'साहस मत करो, साहस मत करो यह ध्वनि कानों में पड़ी। उसे सुनकर सभी दिशाओं में देखते हुए वे दोनों एक साधु को कायोत्सर्ग के लिये स्थित देखकर भक्ति से प्रणाम करके बोले-“हे परमेश्वर! मुनीश्वर! आपने हम दोनों को मरने से कैसे मना कर दिया?" तब मुनि ने भी कहा - "तुमको
चतुर्थ प्रस्ताव