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कुवलयमाला-कथा
[173] प्रकार के रत्न और विद्रुम मणियों से बनी हुई शय्या पर माङ्गलिक क्रियाएँ करके बैठा। यह देखकर आस-पास के लोग तथा सखी-जन वहाँ से धीरे-धीरे खिसक गये। शयन पर रहे हुए कुमार को वह रात्रि एक क्षण के समान बीत गई। प्रभात हुआ तो बाजों के शब्द से कुमार जाग उठा और उसने देवाधिदेव को नमस्कार करके नित्यकर्म किया। इस प्रकार दिन बिताते हुए कुमार ने एक दिन अपने हिमालय जैसे महल पर चढ़कर नगरी से दक्षिण की ओर के प्रकार के पास का समुद्र देखा। क्षणभर देखकर उसने उसका वर्णन किया और मात्राच्युत, अक्षरच्युत बिन्दुच्युत प्रश्रोत्तर और गुप्तक्रिया-पदवाले काव्यों से तथा कथा सम्बन्धी विनोद से कुवलयमाला के साथ आनन्द करने लगा। एक बार कुवलयमाला ने कहा-“देव! तुमने मेरा हाल कैसे जाना?" कुमार ने अयोध्यानगरी से अश्व-हरण से लेकर, मुनि द्वारा बतलाया हुआ चण्डसोम मानभट, मायादित्य लोभदेव और मोहदत्त का पूर्व भव , तथा अन्त में गाथा की पूर्ति से विवाह होगा, यह सब वृत्तान्त कह सुनाया। कुमार ने फिर कहा-" प्रिये! इस लोक सम्बन्धी सुख रूपी वृक्ष के लिए मूल के समान विवाह कर्म तो हो चुका पर अब परलोक में सुख देने वाले सम्यक्त्व को अङ्गीकार करो क्योंकि मनुष्यों ने जिसका आश्रय ले रक्खा है वह चिन्तामणि रत्न चिन्तित पदार्थ को ही देता है परन्तु सम्यक्त्व रत्न अचिन्तित पदार्थ को भी देता है। जब तक हृदय रूपी आकाश में सम्यक्त्व रूपी सूर्य का उदय नहीं होता, तभी तक तमस्तोम (अन्धकार-अज्ञान) फैला रहता है। जिसके सम्यक्त्व रूपी लोचन हैं, वह कदाचित् दृष्टिरहित हो तो भी दृष्टि वाला ही है और जिसके लोचन कानों तक लम्बे हों पर सम्यक्त्व न हो तो वह अन्धा ही है। प्रिये! यदि तुम्हारे चित्त में पूर्व-भव का स्मरण होता हो तो मोक्ष-सुख का दाता जिनेश्वर भगवान् का वचन अवश्य अङ्गीकार करो।" ___कुमार के यह वचन सुनकर कुवलयमाला बोली-"नाथ! तुमने मेरे पूर्व जन्म का सारा वृत्तान्त सुनाकर मुझे सम्यक्त्व का भाजन बनाया है, अतः तुम्ही मेरे लिए शरण हो और तुम्हीं मेरे गुरु हो।"
॥ इति तृतीयः प्रस्तावः।।
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तृतीय प्रस्ताव