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कुवलयमाला-कथा
[171] 'तुम ही मेरा जीवन हो।' कुवलयमाला 'आपकी महती कृपा' कहती हुई लोंग के लतागृह से बाहर निकली। उसे देखकर कञ्चुकी ने कहा-"पुत्री! तू इतनी देर तक यहाँ क्यों ठहरी? तुझे यहाँ किसने बुलाया था? ऐसे एकान्त उद्यान में तेरा बहुत देर रहना उचित नहीं है। अतः अब जल्दी मेरे आगे हो" कञ्चुकी का यह कठोर वचन सुनकर कुवलयमाला उसके साथ चली। रास्ते में वह विचारने लगी- 'अहो! अङ्गीकृत के ऊपर कुमार का कैसा स्नेह है? उनकी प्रतिज्ञा कैसी सत्य है? वे कैसे उपकारी हैं! शिरीष के फूल जैसे कोमल अङ्गवाले होने पर भी पैदल चलकर, मार्ग में भूख-प्यास की पीड़ा की परवाह न कर, प्रेम ही के कारण मुझ दूर देश में रहने वाली को देखने तथा बोध देने यहाँ तक आये हैं। अब प्रिय का पुनः संगम कब होगा?' इत्यादि विचार करती-करती कुवलयमाला राजकन्याओं के अन्तःपुर में आ पहुँची।
इधर कुमार कुवलयमाला के प्रेम और कोप की बातों का स्मरण करता हुआ, एक वृक्ष के नीचे फूल बीनते देख महेन्द्र से बोला- "मित्र! चलो अपने डेरे पर चलें। जो देखना था देख चुके।" फिर दोनों कुमार अपने स्थान पर आये। राजा द्वारा भेजी हुई वार-स्त्रियों ने उन्हें स्नान कराया। फिर दोनों ने भोजन किया और आसन पर बैठे। इतने में एक स्त्री ने आकर कुमार को पान का बीड़ा दिया। कुमार ने उससे पूछा- " यह पान का बीड़ा किसने भेजा है?" उसने उत्तर दिया- " किसी आदमी ने भेजा है। कुवलयमाला कभी भोज्य, कभी ताम्बूल, कभी फूल माला, कभी पत्र, कभी स्नेह रस को पुष्ट करने वाली कोई दूसरी वस्तु सदा कुमार के लिए भेजती रहती थी। इस प्रकार दोनों कुमारों के अपने राज्य की तरह विजयापुरी में रहतेरहते पुण्य से सुन्दर कुछ दिन व्यतीत हुए।
तदनन्तर हेमन्त ऋतु आने पर ज्योतिषी को बुलाकर राजा के पाणिग्रहण का मुहूर्त पूछा। ज्योतिषी ने समस्त ज्योतिष शास्त्र देख कर कहा "महाराज! फागुण सुदी पञ्चमी के दिन बुधवार को स्वाति नक्षत्र में रात्रि का पहला पहर व्यतीत होने पर निर्दोष और प्रधान मुहूर्त आता है। सो आपको विदित हो"। राजा ने यह मुहूर्त स्वीकार करके कुमार से कहा "वत्स कुमार! हमने तुम्हारे विज्ञान, सत्त्व, साहस, तथा पूर्वभव के स्नेह से वशीभूत हुई कुवलयमाला का वियोग बहुत दिनों तक रखाया है। अब तुम आगामी पञ्चमी के दिन वेदी में बैठी हुई कुवलयमाला का पाणिग्रहण करना।" कुमार ने कहा-"आपकी जैसी
तृतीय प्रस्ताव