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कुवलयमाला-कथा
अवस्था हुई जैसे लज्जित हुआ हो, भयभीत हुआ हो, विलक्ष हो गया हो, या अभी अभी जीवित हुआ हो । कुवलयमाला भी कुमार को देखकर 'मैं अकेली हूँ।' इस विचार से भयभीत हुई, 'यह वही ( प्रीतम) हैं' इस विचार से आनन्दित हुई 'मैं स्वयं आई' ऐसे विचार से लज्जित हुई और मैं पहले इन्हें वरण करती हूँ' इस विचार से विश्वस्त हुई । आँखों की चञ्चल पुतलियों को चारों ओर फिराती हुई वह बाला भयभीत, स्तम्भित, विस्मित, स्वेदित और रोमाञ्चित हो गई । परस्पर देखने से दोनों को जो आनन्द हुआ, वह आनन्द कवियों की वाणी के अगोचर और दिव्यज्ञानियों के लिए भी अज्ञेय था । पश्चात् पहले पहल कुमार ने साहस करके धीरता धारण करके, लज्जा तथा भय का त्याग करके 'सुन्दरी! आइये! पधारिये' कहकर फैलाई हुई दोनों भुजाओं से कुवलयमाला के दोनों कन्धे पकड़ लिए।
कुवलयमाला ने कहा - " कुमार ! मुझे छोड़ दो, भला मुझसे आपको क्या मतलब है?"
कुमार- सुन्दराङ्गी ! प्रसन्न होओ, कोप न करो, तुम्हारे लिए ही मैं इतनी दूर तक आया हूँ, यह क्या तुम्हें मालूम नहीं है?
कुवलयमाला - मुझे मालूम ही है कि तुम्हें पृथ्वी मण्डल देखने में कौतुक होता है।
कुमार - ऐसा न कहो, सुन्दरशरीरे ! क्या तुम्हें स्मरण नहीं आता कि तुमने पहले मायादित्य के भव में मुझसे से कहा था कि मुझे बोधि - रत्न देना ? मुनि के द्वारा तुम्हारे इस वाक्य को स्मरण करके मैं लोभदेव का जीव तुम्हें बोध देने के लिए आया हूँ | मुग्धे ! इसलिए तुम बोधि प्राप्त करो और मेरे कहने से माया का त्याग करो ।
इस प्रकार कुमार कह ही रहा था कि भोगवती आकर बोली - " पुत्री ! राजकन्याओं के अन्तःपुर का रक्षक वञ्जुल यहाँ आकर कह रहा है कि आज कुवलयमाला का शरीर अत्यन्त अस्वस्थ है, अतः वह उद्यान में गई है, तुम उसे जल्दी ले आओ ।
यह सुनकर कुवलयमाला समस्त दिशाओं के मण्डल में चञ्जल दृष्टि डालती हुई, बड़े कष्ट से वहाँ से चलने लगी। उस समय कुमार ने कहाबहुत कहने या सौगन्ध खाने के क्या है? परन्तु मैं सत्य ही कहता हूँ कि तृतीय प्रस्ताव
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