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________________ कुवलयमाला-कथा [169] इसके अनन्तर कुवलयचन्द्र कुमार महेन्द्र के साथ राजा के उद्यान में जाकर इधर-उधर घूमने लगा। इतने में महेन्द्र ने कहा "कुमार! नूपुर का मनोहर शब्द सुनायी दे रहा है। मेरे खयाल से तुम्हारे नवीन कामदेवरूपी महा ज्वर का विनाश करने के लिए औषध के समान कुवलयमाला आ रही है।" कुमार- मेरा ऐसा भाग्य नहीं जान पड़ता। महेन्द्र- कुमार! धीरज रक्खो? इतने में घनी लताओं में खड़े हुए कुमार ने हंसियों में राजहंसी के समान, ताराओं में चन्द्रमा की रेखा के समान और अप्सराओं के बीच रम्भा की तरह, सखियों के बीच में आती हुई कुवलयमाला को देखा। उसे देखकर कुमार ने मन ही मन कहा-'ब्रह्मा को अनेकानेक प्रकार धन्य है, जिसने तीन लोक को आश्चर्य करने वाली इस स्त्री को बनाया है।' उसी समय कुवलयमाला ने चलते-चलते कहा- 'विधाता! यदि मुझ पर प्रसन्न हो तो ऐसा करो कि मैं अपने नवीन प्रीतम को आज ही देख पाऊँ और वे मुझे देख लें।' यह सुनकर कुमार ने महेन्द्र से कहा-" महेन्द्र! आगे बढ़कर मैं उसकी चेष्टा देखता हूँ।" यह कहकर कुमार लताकुञ्ज में घुस गया और महेन्द्र क्रीड़ा से इधर उधर घूमने लगा। इधर भोगवती ने कहा-" वत्से! अपना मन खेद के अधीन न करो। मालूम होता है युवक (कुमार) यहाँ आया हुआ है क्योंकि शङ्ख चक्र के पद चिह्न दिखाई दे रहे हैं। इसके अनन्तर भोगवती की आज्ञा से सब दासियाँ कुमार की खोज में चारों ओर निकलीं, परन्तु कुमार कहीं दिखाई न दिया। तब भोगवती ने कहा "पुत्री! मैं स्वयं जाकर अभी खोज लाती हूँ। तू यहीं रहना।" यह कहकर भोगवती कुमार को ढूँढ़ने चली। कुवलयमाला ने सोचा-'मुझे तो यह सब कपट जान पड़ता है। उस युवक ने आज यहाँ आने का संकेत ही नहीं किया होगा। ये पैरों के चिह्न किसी दूसरे के होंगे। वह तो देवों को भी दुर्लभ है तो मुझे कैसे प्राप्त हो सकता है? वह मुझे कभी ब्याहेगा, पर उसके साथ किये जाने वाले विवाह का जो दिन निश्चित किया गया होगा, तब तक प्राण कैसे बने रहेंगे? मुझे कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि यह दुःख अब बहुत देर न भुगतना पड़े।' ऐसा विचार कर कुवलयमाला पाश बनाने के लिए लोंग के लता-मण्डप की ओर चली। उसी मण्डप में कुमार छिपा था। उसे आती देखकर क्षणभर कुमार की ऐसी अपूर्व अनिर्वचनीय तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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