________________
[152]
कुवलयमाला-कथा
कुमार- तुम्हारा चारित्र बेमेल है, अत यह बताओ कि तुम हो कौन ? पल्लीपति- मैं भील नहीं हूँ। यह हाल विस्तार पूर्वक बाद में कहूँगा । इस समय सार्थ को लूटने वाले भीलों को रोकता हूँ ।
इतना कहकर उसने भीलों से सब सार्थ की रक्षा की। सब भील सरदार डर से दूर भाग गये । सार्थ के मनुष्यों की जो चीजें भील ले गये थे, उसने सब वापस दिलवाईं। भागते हुए सार्थपति को पकड़ कर भीलों ने अपने सरदार को ला सौंपा। सरदार ने उससे कहा - " सार्थपति ! डरो मत। अपनी सब वस्तुएँ सँभाल लो और जहाँ जाना हो सुख से जाओ।" इस प्रकार कह कर सेनापति तुरत उठा और कुमार के साथ अपनी महापल्ली में गया जो कि पर्वत के शिखर पर थी। वहाँ नगरी की तरह समृद्धिशाली पल्ली तथा उसके बीच में बने हुए स्वच्छ प्रासाद को देखकर कुमार ने उससे पूछा - " इस संनिवेश का क्या नाम है ?” उसने उत्तर दिया- "इसका नाम चिन्तामणि है ।" इस प्रकार तरह तरह के प्रश्न पूछतापूछता राजकुमार राजमन्दिर में गया । वहाँ थोड़ी देर तक दोनों स्नान करने की चौकी पर बैठे। फूले हुए मालती के फूलों जैसे सुगन्ध युक्त तैल उनके सिर में डाल कर नौकरों ने कमल सरीखे कोमल हाथों से शरीर की अच्छी तरह संवाहना की । फिर गुनगुने पानी से स्नान करके पवित्र होकर चन्द्रमा की किरणों से बनाये हुए जैसे श्वेत वस्त्र पहन कर उस महल में बने हुए देवालय में गये । मोक्षलक्ष्मी के द्वार के समान उस देवालय के सुवर्णमय दरवाजे को खोल कर वे अन्दर घुसे। वहाँ सोने तथा रत्नों की बनी हुई पूज्य तीर्थङ्करों की प्रतिमाओं की पूजा की। फिर चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति का पाठ करके उन्हें प्रणाम करके दोनों भोजनशाला में आये । वहाँ इच्छानुसार आनन्दपूर्वक भोजन करके आपस में बात-चीत करने लगे। इतने में वहाँ अचानक ही एक पुरुष आया । वह सफेद वस्त्र पहने हुआ था और हाथ में लोहे का एक डण्डा लिये हुए था । वह बोला"पल्लीपति! इस अपार और असार सागर के समान संसार को तू जानता है तथा मोक्ष सुख का ही उपदेश देने वाले जिनेन्द्र के वचन भी जानता है, तो भी यदि तू इस व्यवसाय को न छोड़ेगा तो मैं इस डण्डे से तेरी खबर लूँगा।" ऐसा कहकर उस पुरुष ने सरदार के सिर में बिलकुल धीरे से डण्डा लगाया । सेनापति इतने से प्रहार से ही नीचे की ओर देखने लगा जैसे महान् गरुड़ - मन्त्र से मन्त्रित सरसों
तृतीय प्रस्त