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कुवलयमाला-कथा
[151] सहित धनुष् छुड़ा कर बाणों की ऐसी वर्षा की जैसे जल की धाराओं से मेघ की वर्षा होती है। कुमार के प्रहारों से भीलों की समस्त सेना जर्जरित होकर भाग खड़ी हुई। यह देखकर पल्लीपति (सरदार) क्रोध में आकर स्वयं युद्ध करने लगा। दोनों एक दूसरे पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे। ऐसा जान पड़ने लगा कि दूसरी काल रात्रि आ उपस्थित हुई है। कुमार के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उसने अन्त में पल्लीपति पर स्तम्भन मन्त्र का प्रयोग किया भीलों के सरदार ने भी कुमार पर उसी मन्त्र का प्रयोग किया परन्तु उस पर मन्त्र का जरा भी असर न हुआ। यह देख कर सरदार ने सोचा-'अहो, यह कोई महान् पराक्रमी तथा समस्त कलाओं में कुशल मालूम होता है। मैं इसे नहीं मार सकता। हाँ, यह हो सकता है कि यही मुझे मार डाले। अतः मुझे अब प्रहार करना उचित नहीं है। समस्त संग (परिग्रह) का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।' ऐसा विचार कर सरदार युद्धक्षेत्र से सौ हाथ पीछे हट गया और भयङ्कर तलवार हाथ से नीचे डाल दी। फिर हाथ लम्बे करके, दुर्ध्यान का त्याग करके, आगार सहित नियम धारण करके पञ्च नमस्कार मन्त्र का ध्यान करता हुआ शत्रु-मित्र पर समता रखकर उसने कायोत्सर्ग अङ्गीकार किया। उसकी ऐसी चेष्टा देख तथा पञ्च नमस्कार मन्त्र का उच्चारण सुन एकदम सम्भ्रान्त हुआ कुमार उसे सधर्मी समझ उसके पास आया और बोला-"पल्लीपति! तुमने यह अपूर्व साहस यकायक क्यों किया है? कायोत्सर्ग छोड़ दो। मुझे क्षमा करो, जिसने कि पहले तुम्हारा अपराध किया है।" पल्लीपति ने यह विचार कर कि, यह मेरा सधर्मी है, इसे मुझे 'मिथ्या दुष्कृत' देना चाहिए, कायोत्सर्ग का त्याग करके कुमार को वन्दना दी। कुमार ने भी उसे वन्दना की। इस प्रकार दोनों आपस में धर्मानुराग दिखाने लगे। उनके चित्त प्रीति से ओतप्रोत हो गये और नेत्रों में जल भर आया।
कुमार- जब तुम्हारा ऐसा कर्म है तो यह धर्म कैसे? और जब यह धर्म है तो दूसरे (धनादि) से क्या प्रयोजन?
__पल्लीपति- मैं सब जानता हूँ परन्तु कर्म रूपी दुष्ट वैरियों ने मुझे लोभ में फँसा दिया है। तो भी अब तुम्हारी संगति से नियम और ध्यान के संयोग से आत्मा का कल्याण करूँगा।
तृतीय प्रस्ताव