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कुवलयमाला-कथा कुमार ‘अच्छा ऐसा कीजिये' कह कर वहाँ से चल दिया। कुमार की संगति के विरह से एणिका को अत्यन्त शोक हुआ। शोक से उत्पन्न हुए अश्रुजल की बूंदों से उसके नेत्रों की गति बन्द हो गई। वह राजकीर के साथ कुमार के पीछे-पीछे कुछ दूर तक गई, फिर उसकी आज्ञा लेकर वापस लौट आई।
चलते-चलते कुमार अनुक्रम से विन्ध्याटवी को लाँघ कर सह्य पर्वत के पास आया। वहाँ एक सार्थ को किसी सरोवर के किनारे पड़ा हुआ देखकर कुमार ने एक आदमी से पूछा-"क्यों भाई! यह सार्थ कहाँ से आ रहा है?
और कहाँ जाने वाला है?" उसने उत्तर दिया-"यह सार्थ विन्ध्यपुर से आ रहा है और काञ्चीपुरी (करांची) जाने वाला है।" कुमार ने कहा-"विजयपुरी यहाँ से कितनी दूर है? तुम्हें मालूम है?" उसने उत्तर दिया-“देव! विजयपुरी यहाँ से बहुत दूर है। सुना है वह दक्षिण समुद्र के किनारे पर है।" कुमार ने सोचा-'मुझे इस सार्थ के साथ ही चलना चाहिये' ऐसा सोचकर वह सार्थपति वैश्रमणदत्त के पास गया और बोला-"सार्थपति! मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।" सार्थपति ने कहा-"ठीक है। आपने हम पर बड़ी कृपा की।" फिर सार्थपति वहाँ से रवाना हुआ। वह कुछ दूर पहुँचा कि सूर्य अस्ताचल पर आरूढ़ हो गये। सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार फैल गया। सार्थ ने वहीं कहीं पड़ाव डाल दिया। दैवयोग से उसी रात में कठोर तलवारों को धारण करने वाले और धनुष् पर बाण चढ़ा कर तैयार हुए भीलों ने 'पकड़ो पकड़ो' पुकार कर समस्त सार्थ को लूट लिया। यह सारी मुसीबत देख सार्थ के लोग भागने लगे। उसी समय सार्थपति की धनवती नाम की कन्या अपने परिजनों के भाग जाने, सिपाहियों के मारे जाने और सार्थपति के प्राण चले जाने से भीलों के कब्जे में आ पड़ी। उसकी आँखें भय से विह्वल हो गईं। वह साँसें छोड़ने लगी और उसके पुष्ट स्तन काँपने लगे। अन्त में निराधार धनवती 'कोई रक्षा करो, रक्षा करो' की प्रार्थना करती हुई कुवलयचन्द्रकुमार के पास आई और बोली-"निर्भय भद्र! तुम शूरता में सिंह के समान जान पड़ते हो तो इन भीलों से सताई हुई मेरी रक्षा करो" कुमार ने कहा-"सुन्दरनेत्रे! अपने नेत्रों को भयभ्रान्त न कर। मैं अपनी जान देकर भी तेरी रक्षा करूँगा।" ऐसा कह उसने किसी भील से बाणों
तृतीय प्रस्ताव