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________________ कुवलयमाला-कथा [149] और तीसरा शाबरी विद्या का किया। फिर शरीर के समस्त आभूषण उतार कर उन दोनों ने शबर का वेष बनाया। उनके महाराजाधिराज ने दोनों ने मौन व्रत लिया और उसी समय आदिनाथ भगवान् के तीर्थ में होने वाले गुरुओं तथा सधर्मियों को वन्दना की। इसके बाद विद्याधरों में से एक उठा और हाथ जोड़कर बोला-"लोकपालों तथा विद्याधरों! तुम सब सुनो। पहले शबरशील नामक विद्याधर राजा था। उसने सब तरह की शबरविद्या का कोश सिद्ध किया था। उस प्रतापी राजा ने चिरकाल तक राज्य का पालन किया। फिर उसे वैराग्य का रंग चढ़ा तो वह जिनधर्म अङ्गीकार करके समस्त परिग्रह का त्याग करके इसी पर्वत की गुफा में रहा था। उसके पुत्र शबर सेनापति ने पितृभक्ति से यहीं भगवान् के स्फटिकमणि की प्रतिमा स्थापित की है। तब से लेकर यह वन विद्या सिद्ध करने का क्षेत्र हुआ है। अतः शबर का वेष धारण करने वाले विद्याधर को भगवान् श्री आदिनाथ के प्रभाव से तथा धरणेन्द्र के नाम से यह विद्या निर्विघ्न सिद्ध हो।" यह सुनकर सब विद्याधर 'इसकी विद्या शीघ्र सिद्ध हो' कह कर अपने स्थान को चले गये, पर जिन्होंने शबर वेष धारण किया था वे वहीं रह गये। कुमार! राजकीर ने मुझे यह वृत्तान्त सुनाया था, इससे मैं समझती हूँ कि शाबर भेष धारण करने वाले विद्याधर हैं। वह हाल सुनकर कुमार बोले-"एणिका! मेरा एक कर्ण-कटु वचन सुनो।" एणिका- आज्ञा दीजिये। कुमार- मुझे यहाँ आये बहुत समय बीत चुका है। तुम्हारा कल्याण हो। मुझे दक्षिण में अवश्य जाना है, इसलिए मैं अब जाऊँगा। ऐणिका- कुमार! तुम सच ही कह रहे हो, क्योंकि अतिथि से घर नहीं वसता। किन्तु अपना वृत्तान्त सुनाकर मुझे आनन्द दीजिये। कुमार ने मूल से लेकर वन में आने तक का अपना सारा हाल कह सुनाया। हाल सुनकर एणिका ने कहा- "कुमार! तुम्हारे वियोग से तुम्हारे माता, पिता तरह-तरह की पीड़ा पा रहे होंगे। यदि तुम्हें रुचे तो तुम्हारे शरीर का कुशल- समाचार कहने के लिए इस राजकीर को वहाँ भेज दूं।" तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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