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कुवलयमाला-कथा
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प्रस्तार में उत्पन्न हुई । वे मुनिराज तलवार के निर्दय प्रहार से व्यथा पाकर भी समाधि पूर्वक काल करके सौधर्म स्वर्ग में सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए। वही देव आयु पूर्ण होने पर चय कर इस भृगुकच्छ में राजा हुआ । मैं वही हूँ और यहाँ मुझे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है । यह बात जान कर तुम मेरे पास आये हो ।
सिंह कुमार नरक से निकलकर नन्दीपुर गाँव में ब्राह्मण हुआ। वह अनुक्रम से विरक्त होकर एक दण्डी संन्यासी हो गया । वहाँ समस्त आश्रम के योग्य तपस्या करके आयु पूर्ण होने पर काल करके ज्योतिष्क विमान में देव हुआ। उस देव ने किसी केवली से अपना पूर्वभव पूछा । केवली ने उसे पूर्व भव बतलाया। पूर्व भव सुनकर उसे मन में अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ । उसने सोचा- 'अरे! मुझे मेरी पत्नी ने ही मार डाला । वह पापिनी इस समय कहाँ है?' यह सोचकर उसने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया तो उसे नरक से निकालकर पद्मपुर में पद्मराजा की पुत्री रूप से तत्काल जन्मी हुई देखा । उसे देखते ही देव को ऐसा क्रोध आया कि उसके होठ काँपने लगे । वह वहाँ आया और लड़की को उसी समय उठा लाकर विन्ध्य पर्वत के वन में ऊपर से पटक दी। सौभाग्य से लड़की नये-नये कोमल अङ्कुरों वाले स्थान पर गिरी और हवा लगने से होश में आई। भवितव्य के योग से गर्भ के भार से पीडित वन की एक हरिणी उसी जगह आई और वहीं उसने प्रसव किया। जब हरिणी की प्रसव वेदना शान्त हुई तो उसने अपने पास एक बच्चा और एक तत्काल जन्मी हुई राजपुत्री को देख कर सोचा- 'अरे, इस बार मुझे क्या दो बच्चे हुए हैं?' ऐसा सोचकर वह मृगी सरलभाव से अपनी ही प्रसूति समझकर उस बालिका के मुँह में भी अपने स्तन का दूध डाल कर उसका पोषण करने लगी। धीरे-धीरे वह बालिका निर्जन वन में मृग की टोली के साथ क्रीड़ा करती हुई जवान हुई । उसके लिए वहाँ वन के निकुञ्ज गृह के समान, पक्षी ही बन्दरों के बच्चे मित्र, वन के फल ही भोजन और झरणों का पानी ही जल-पान के लिए है, विशाल शिलायें ही शय्या है और मृगों की पीठ तथा मस्तक का खुजाना ही उसके लिए विनय है । इस कारण मृगों के समुदाय में रही हुई वह बालिका मनुष्य को देख कर हरिणी की भाँति नेत्रों को प्रफुल्लित करके भागती है। हे विद्याधरों ! तुमने मुझसे पूछा था कि 'वन में भ्रमण करने वाली
तृतीय प्रस्ताव