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कुवलयमाला-कथा
[139] ने पराक्रम का स्थान- रूप औषधि का एक कड़ा जो उसके हाथ में बँधा हुआ था खोलकर उसे दे दिया। कुमार उसे लेकर दक्षिण की तरफ चल दिया। चलते चलते रास्ते में नर्मदा नदी आई। प्रचण्ड हवा से हिलाई हुई उस नदी की हिलोरें किनारे के पक्षियों को प्रेरित कर रही थीं। हाथियों की सँडों के आघात से जल की कल्लोलें उछल रही थीं। उसमें स्नान करने वाले मदोन्मत्त दुर्दान्त हाथियों के गण्डस्थलों से झरते हुए मद जल की बूंदों से नदी का जल सुगन्धित हो गया था। नर्मदा नदी को पार करके कुमार उसके किनारे पर घूमने लगा। इतने में तमाल के वृक्ष और भौंरों की ध्वनि से मनोहर एक झोंपड़ी उसे दिखाई दी। कुमार उसमें घुसा तो रुद्राक्ष की माला तथा कमण्डलु पर उसकी नजर पड़ी। केशर वृक्ष था और उसके खिले हुए फूलों की सुगन्ध में लुब्ध होकर भौंरे "गुनगुन" शब्द कर रहे थे। वहाँ की भूमि की रेत में किसी मनुष्य के पैर बने थे। उन्हें देखकर कुमार ने विचारा-'सचमुच ये चरणन्यास के प्रतिबिम्ब किसी स्त्री के होने चाहिए, पुरुष के नहीं' इस प्रकार विचार करता हुआ कुमार उस उछरे (बने) हुए पैरों के चिह्न को देखता हुआ जरा आगे बढ़ा तो एक बूढी तपस्विनी उसे दिखाई दी। उसने अपने बड़े बड़े स्तन छाल के वस्त्रों से ढंक लिये थे। उसके पीछे-पीछे तीन लोक के रूप से भी अधिक रूप वाली एक नवयुवति कन्या चल रही थी। उन दोनों के साथ एक राजकीर (तोता) चल रहा था। उसके पीछे
और बहुत से तोते और मैनाएँ चल रही थीं। यह सब देखकर कुमार ने विचार किया-'ओहो, इस तपस्विनी का कितना बड़ा उपश्रम है कि वनवासी पक्षी भी उसके पास से नहीं हटते।' इस प्रकार विचार करते हुए कुमार को यकायक देखकर उस नवयुवति की दृष्टि डर के मारे चञ्चल हो गई, क्योंकि वह निर्जन वन में जन्मी थी। इसलिए वह सुन्दर मुख वाली युवति वहाँ से भागने का विचार करने लगी। यह बात राजकीर ने जान ली। वह बोला-"स्वामिनी एणिका ! तू क्यों भागती है?"
युवति- मेरी इस झोंपड़ी में यह किस तरह का जानवर आ गया है?
राजकीर- एणिका! तू अपने मन में मत डर। यह कोई मुसाफिर मनुष्य है। रास्ते की थकावट से यहाँ आ गया है। अतः तू इस भले आदमी की आव-भगत कर।
तृतीय प्रस्ताव