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________________ [138] कुवलयमाला-कथा "प्रभो! मैं सब परुषार्थों से रहित था। लोग सभी जगह मेरी हँसी उडाते थे। इतना होने पर भी मैं ऐश्वर्य का पात्र यक्षराज हुआ हूँ सो सिर्फ आपकी ही कृपा है। अतः अपने मस्तक पर आपकी स्थापना करना उचित है। ये जिनेन्द्र प्रथम तो सुरेन्द्र, असुरेन्द्र, और नरेन्द्रों के भी पूज्य हैं, दूसरे ये मेरे उपकारी हैं, तीसरे मोक्ष सुख के कारण हैं' यक्षराज ने अपने परिवार से इस प्रकार कहकर अपनी मुक्ता मणिमय मूर्ति बनाकर उसके मुकुट पर श्रीमान् आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा स्थापित की। उस दिन से यक्षों ने उसका रत्नशेखर नाम बदल कर जिनेश्वर नाम प्रसिद्ध किया। फिर उस यक्षराज ने मुझसे कहा"कनकप्रभा! तू सदा यहाँ आकर दिव्य पुरुषों से भगवान् की पूजा करना और मैं अष्टमी तथा चतुर्दशी के दिन परिवार को साथ लेकर छत्र-चँवर आदि राज चिह्नों सहित भगवान् की पूजा करने आऊँगा।" यक्षराज ऐसा कहकर अपने स्थान पर चला गया। हे राजकुमार! आपने मुझ से पूछा था कि यह यक्ष कौन है? इसके मस्तक पर जिनेन्द्र की प्रतिमा क्यों है? और तू कौन है? इसके उत्तर में यक्षराज तथा जिनेन्द्र की प्रतिमा सम्बन्धी वृत्तान्त मैंने निवेदन कर दिया। मैं यक्षराज की किङ्करी हूँ और उसकी आज्ञा से यहाँ सदा आया करती हूँ।" इस प्रकार वृत्तान्त सुनकर कुमार ने कहा " ओहो! बड़ा आश्चर्य है। इन महाप्रभावशाली भगवान् की भक्ति के समूह से भरपूर यक्षराज को, विनयवती तुमको तथा इस मनोहर प्रदेश को देख कर अपनी दृष्टि तथा श्रुति का फल मुझे पूरा मिल गया।" स्त्री- भद्र! देव का दर्शन सफल होता है, इसलिए तुम मुझ से कुछ न कुछ माँगो, जिससे तुम्हारा मनचाहा फल दूँ। कुमार- मुझे कुछ नहीं माँगना है। स्त्री- प्रत्येक प्राणी को कुछ न कुछ इष्ट होता ही है, अतः खुशी के साथ माँग लो। ___कुमार-"भद्रे! इन पूज्य जिनराज का, जिनेश्वर के पूर्ण भक्त इन यक्षराज का और तुम्हारा दर्शन हो गया, इससे अधिक और क्या माँगना है?" कुमार इतना कहकर खड़ा हो गया। वह फिर बोली-“भद्र! तुम्हें बहुत दूर जाना है और जंगल का मार्ग बहुत टेढ़ा तथा विघ्नों का कारण है।" ऐसा कहकर देवी तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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