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कुवलयमाला-कथा
[137] सरोवर के समीप आया । वहाँ उसने जलपान करके जंगल के फल खाये । फिर वह उसी वन में विहार करने लगा । उसे लोंग, चन्दन और इलायची की वेलों के मण्डप में भगवान् ऋषभदेव की मूर्ति देखकर विचार आया- 'ओहो ! पहले माकन्दी नगरी में भी मैंने ऐसी मूर्ति देखी थी।' इस प्रकार विचार कर तीर्थंकर की प्रतिमा का पूजन करके वह कहने लगा- " भगवन् ! मैं तुम्हारा नाम, गोत्र, गुण या कला- कुछ भी नहीं जानता । परन्तु आपके भक्तिपूर्वक दर्शन करने तथा आपके चरण-कमल की पूजा करने से प्राणियों को जो लाभ होता हो, वह मुझे भी प्राप्त होवे । " इस प्रकार प्रार्थना करके वह फिर विचार करने लगा'इस वन का यह प्रदेश मनोहर है, यह सरोवर उत्तम है, यह लतागृह रमणीय है, ये वृक्ष फले हुए हैं, और ये देव भी सौम्य गुण युक्त हैं । फिर मुझ जैसे की, जिसकी आत्मा दुःसह दरिद्रता और अपमान से कलङ्कित हुई है, और जिसने पहले तपस्या नहीं की, परदेश जाकर भी दूसरे की गुलामी करने के सिवा और क्या गति है? क्योंकि मनुष्य चाहे जितनी दूर चला जाय, उसे किये हुए . कर्म छोड़ते नहीं हैं। कोई दरिद्री रोहण नामक पर्वत पर चला जाय तो भी उसकी दरिद्रता तो जैसी की तैसी ही बनी रहती है । पहले किये हुए कर्मों का सर्वथा नाश होता ही नहीं है । तो यहीं रहकर इस जल में स्नान करके तथा इसके कमलों से इन देवता ही पूजा करके इस वन में ही तपस्वी की तरह क्यों न आनन्द से रहूँ?' इत्यादि विचार करके सोम वहीं रहने लगा। किसी समय उसने बहुत से फलों का आहार किया । इससे उसे विसूचिका का रोग हो गया। वह हृदय में भगवान् की मूर्ति का ध्यान करता हुआ समाधि पूर्वक मृत्यु पाकर रत्नप्रभा पृथ्वी के पहले सौ योजन में, व्यन्तरों के जो आठ अल्प'ऋद्धि वाले यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व नाम के निकाय हैं इनमें से पहले निकाय में महान् ऐश्वर्य वाला रत्नशेखर नाम का यक्षराज हुआ। वहाँ उत्पन्न होते ही उसने विचार किया- 'मैं किस पुण्य से ऐसे ऐश्वर्य का पात्र हुआ हूँ?' ऐसा विचार कर उसने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया तो उसी लतागृह में तीन लोक के नाथ (भगवान्) के पास अपना शरीर देखा। फिर वह यक्षराज युगादि भगवान् की प्रतिमा का पूजन करके बोला
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अन्य देवों की अपेक्षा से अल्प ऋद्धि वाले । मनुष्यों की अपेक्षा तो बहुत अधिक ऋद्धि समझनी चाहिए ।
तृतीय प्रस्ताव