SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [136] कुवलयमाला-कथा वर्षों में निकृष्ट वीसी (बीस वर्ष) शुरू हुई। उस वीसी के प्रभाव से बारह वर्ष तक अनावृष्टि हुई। उनमें औषधियाँ उत्पन्न न हुईं। वृक्षों में फल न लगे, अनाज की उपज न हुई। हाँ, सिर्फ थोड़ी-थोड़ी घास उगी। ऐसे दुष्काल के कारण न कोई मनुष्य देव-पूजा करता, न अतिथियों का आदर सत्कार करता, न दान देता। यहाँ तक कि कोई गुरुजनों की सेवा भी न करता था। ऐसे भयानक दुष्काल में यज्ञदत्त का सारा कुटुम्ब काल के गाल में चला गया। केवल वही लड़का जीवित बचा। कर्म के योग से महान् कष्ट पूर्वक उसके समस्त बन्धु जन भूख से मरे। बेचारे लड़के को सड़क पर बनी हुई दुकानों की कतारों के आस-पास कभी अनाज के दाने मिल जाते, कभी कोई उसे थोड़ा सा टुकड़ा दे देता। इसी से पेट पालकर बड़ी मुसीबत के साथ वह उस भीषण दुर्भिक्ष रूपी अरण्य को पार कर पाया। इसके बाद ग्रहों की शुभ गति से और प्रजा के भाग्य से पानी की काफी वर्षा हुई। सब जगह मनुष्यों के चित्त में आनन्द हुआ और जगह -जगह उत्सव मनाये जाने लगे। जब यह सुकाल हुआ तो सोम बटुक की उम्र सोलह वर्ष की हुई। नगरी के निवासी उसे दरिद्री के नाम से पुकार कर स्थान-स्थान पर उसकी हँसी उड़ाते थे। इसलिए उसने अपने मन में विचार किया-'कितने ही मनुष्य हजारों प्राणियों के पेटों का पालन करते हैं और हमारे जैसे कितनेक पहले किये हुए पाप कर्मों के कारण अपने भी पेट का गुजारा नहीं कर सकते। इससे ऐसा जान पड़ता है कि पूर्व भव में मैंने कुछ भी पुण्य नहीं किया। मेरी दशा कभी नहीं सुधर सकती। सब लोगों के मन में सदा सुख पाने की इच्छा होती है, परन्तु वे कुछ भी सत्कार्य नहीं करते कि जिससे सुखी हों। धर्म अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों से सर्वथा रहित मुझे अब प्राणों का त्याग करना ही कल्याणकारी है या वह उचित नहीं, क्योंकि आत्मघातकरण ठीक नहीं है। पृथ्वी पर जिन प्राणियों को धन और मान ने त्याग दिया हो उन्हें वनवास या परदेश-गमन ही श्रेयस्कर है। इसलिए मुझे परदेश में चला जाना चाहिए, ऐसा विचार कर सोम बटुक माकन्दी पुरी से निकल कर दक्षिण की ओर रवाना हुआ। निरन्तर गमन करता हुआ, रास्ते में भीख माँगता हुआ वह अनुक्रम से विन्ध्याचल के बड़े भारी जंगल में आ पहुँचा। उस समय गर्मी की ऋतु थी। वह प्यास से दुःखी था। वह रास्ता भूल गया। सिंह और बाघों के दिखाई देने से काँप रहा था। फिरता-फिरता एक तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy