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कुवलयमाला-कथा
[135] पैरों में पद्म, शङ्ख, अङ्कश आदि चिह्न मालूम होते हैं। मेरे खयाल से किसी उत्तम पुरुष ने पूजा की है।" ऐसा कहती हुई सुन्दर दाँतों की पंक्ति वाली उस स्त्री ने पहले की हुई पूजा के कमल अलग करके भगवान् की प्रतिमा को सुवर्णकलश के गन्धोदक से स्नान कराया और फूले हुए कमलों से पूजा की। फिर यक्ष की भी पूजा करके वह गायन करने लगी। उसकी लय, ताल, तान, श्रुति, स्वर, मूर्छना और ग्राम से सुन्दर तथा नाना गुण वाले गान को सुनकर कुमार अत्यन्त प्रसन्न हुआ 'अहा, सुन्दर गान! अहा सुन्दर गान' कहता हुआ प्रगट हो गया। गुण समूह से युक्त कुमार को देखकर वह मृगाक्षी स्त्री उसका सत्कार करने के लिए खड़ी हुई। कुमार ने भी साधर्मि-वात्सल्य का विचार कर उसने पहले वन्दना की। वह भय और लज्जा के भार से काँपते हुए स्तनों के बोझे के कारण नम्र हो गई। कुमार ने उससे पूछा-"इस अरण्य में आने वाली आप कौन हैं? यह यक्ष कौन है और इसके मस्तक पर जिनेन्द्र भगवान् की मूर्ति क्यों बनाई गई है? हे मृगनयनी! मेरे मन में इस विषय में बड़ा कौतूहल उत्पन्न हुआ है। मुझे शीघ्र बतलायें।"
स्त्री- कुमार! सुनिये -इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्वर्गपुरी के समान सुन्दर, बहुतेरे माकन्द (आम) के वृक्षों से शोभित और सदा दीनता रहित माकन्दी नाम की नगरी है। उस नगरी में अरिष्ट' शब्द की प्रवृत्ति सिर्फ नीम के वृक्षों के लिए होती थी, कलि' शब्द की प्रवृत्ति सिर्फ नीम के वृक्षों के लिए थी और पल शब्द सिर्फ धातकी तथा गूगल वृक्ष के विषय में प्रवृत्त होता था। वहाँ के निवासियों में इनकी प्रवृत्ति नहीं होती थी। उस नगरी में यज्ञदत्त नामक कठ शाखा का श्रोत्रिय ब्राह्मण रहता था। वह काले शरीर वाला, दूब के समान दुबला और कठोर स्पर्श वाला था। उनके शरीर की सारी नसें बाहर दीख पड़ती थीं। उस पर सदा दरिद्रता का सिक्का जमा रहता था-दरिद्र रहता था। सावित्री नाम की उसकी स्त्री थी। उसकी कोख से उत्पन्न उस ब्राह्मण के तेरह लड़के थे। सब से छोटे लड़के का नाम सोम था। जब वह जन्मा उसी समय समस्त
१. नीम तथा दुर्भाय । दुर्भाग्य प्रज्ञा में न था। २. विभीतक का झाड़ तथा कलह, कलह प्रजा में न था। ३. मांस।
तृतीय प्रस्ताव