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कुवलयमाला-कथा
से उसका अभिप्राय समझकर कहा - ' कुमार सिंह यह कह रहा है कि हम जैसे पापी प्राणियों को प्रासुक आहार तो मिलता नहीं, सदा मांस खा कर रहना पड़ता है । इसलिए मेरा जीवित रहना ही अच्छा नहीं है ।' मुनि ने उसे प्रतिबोध पाये
सिंह को आगार रहित अनशन व्रत दिया । उसने उसे स्वीकार किया । वह स और स्थावर जीवों से रहित भूमि पर बैठ कर संसार की असारता की भावना करने लगा, पञ्चनमस्कार मन्त्र में तत्पर हो गया और उसने सिंह जाति के समस्त दुराचारों का त्याग कर दिया ।
इसके अनन्तर कुमार ने मुनि से पूछा - " पूज्य ! कुवलयमाला को किस प्रकार बोध देना होगा?"
मुनि - विजयपुरी में चारणमुनि की कथा सुनकर कुवलयमाला को भी अपने पूर्व जन्म की स्मृति हो जायगी । वह एक गाथा का चौथा चरण राजसभा में सब के सामने दिखलाएगी । तू वहाँ जाकर उस गाथा की पूर्ति करके उसे ब्याहेगा। तेरी पटरानी होगी। उसकी कोख से उत्पन्न होकर यह पद्मकेशर देव तेरा पहला पुत्र होगा। अतएव तू दक्षिण दिशा में जाकर कुवलयमाला को प्रतिबोध दे ।
इतना कहकर मुनिराज ने तत्काल वहाँ से विहार कर दिया। मुनिराज से 'आप मुझे बोध देना' कह कर देव भी आकाश में उड़कर अपने स्थान
पर चला गया ।
कुमार ने यह सोच कर कि मुझे मुनिराज की आज्ञा का पालन करना चाहिए, दक्षिण की ओर प्रस्थान किया । रास्ते में उसी सिंह को देखकर उसने विचार किया-'यह सिंह मेरा सहधर्मी है, पहले का मित्र है, स्नेही बन्धु है, गुरु महाराज द्वारा दीक्षित हुआ है और अनशन व्रतधारी है । अतः मुझे इसकी सेवा करनी चाहिए। यदि मैं इसके शरीर की हिफाजत नहीं करूँगा तो किसी समय किसी शिकारी के शर से यह मारा जाएगा और रौद्रध्यान के वश होकर नरक या तिर्यञ्च गति के दुःखों का पात्र होगा।' कुमार ऐसा विचार कर वहाँ ठहर गया और उसकी भलीभाँति सेवा बजाई । कुमार ने उससे कहा- "मृगराज ! तुमने मिथ्यात्व के कारण इस संसार में बारम्बार उत्पन्न होकर मृत्यु पायी है । अब की बार इस प्रकार मरण करो कि फिर कभी मृत्यु से पाला न पड़े। "
तृतीय प्रस्ताव