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कुवलयमाला-कथा
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इस प्रकार धर्मकथा सुनता हुआ सिंह, जिसका शरीर क्षुधा से क्षीण हो गया था, नमस्कार मन्त्र के ध्यान में मग्न होकर समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुआ और सौधर्म स्वर्ग में दो सागरोपम की स्थिति वाला देव हुआ ।
सिंह के शरीर का संस्कार करके कुवलयचन्द्र कुमार दक्षिण की ओर रवाना हुआ। चलता- चलता वह विन्ध्य पर्वत के वन में आ पहुँचा। पर्वत के झरनों के 'कल-कल' नाद से वन की दिशाएँ वाचाल हो रही थीं। वह वन त्रिपर्ण तथा सप्तपर्ण आदि अनेक वृक्षों से व्याप्त था । उसमें वृक्षों के फूलों की फैली हुई गन्ध में मस्त भ्रमर विलास कर रहे थे। जगह-जगह कोयल की मनोहर कुहुक कानों में पड़ती थी । वह वन भयानक शिकारी पशुओं से भरा हुआ था। जिस समय की यह बात है, उस समय भीषण ग्रीष्म ऋतु थी । इसलिए वन की बालू इतनी गर्म हो गई कि नाखूनों को भी जला डालती थी। चारों ओर जलती हुई दावाग्नि से जो धुआं निकलता था उससे दिशामण्डल श्याम पड़ गया था । सब जगह के वृक्ष सूख गये थे, बवण्डर के मारे आकाश में धूल उड़ रही थी और सूर्य की प्रचण्ड किरणें रूपी दण्ड से मही मुरझा सी गई थी । ऐसी ग्रीष्म ऋतु होने से कुमार का गला और तलुवा प्यास से सूख गया। वह जल की खोज में कुछ आगे बढ़ा। इतने में उसे एक सरोवर दिखाई दिया । सरोवर क्या था, मानों गङ्गा का आवर्त था, क्षीरसमुद्र का छोटा भाई था और अमृत का कुण्ड था । वह कमलों से सुशोभित हो रहा था । वह सरोवर ऐसा सुन्दर लगता था कि पृथ्वी रूपी स्त्री के ललाट में लगा हुआ तिलक हो या नाच करते समय देवाङ्गना का कुण्डल जमीन पर गिर पड़ा हो । हवा के द्वारा हिलाए हुए कमलों के पराग से दिशा रूपी स्त्रियों के मुख भर गये थे। उसकी तरङ्गे उससे क्रीड़ा करने वाली देवाङ्गनाओं के पुष्ट स्तनों को भी क्षुब्ध कर देती थीं। उसके किनारे के वृक्ष के झुण्ड में इकट्ठी हुई किन्नरियाँ गाना कर रही थी । उस सरोवर को देखकर कुमार ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे उसका हृदय उच्छसित हो उठा हो, नष्ट हुई बुद्धि फिर प्राप्त हो गई हो, या उसके सभी मनोरथ पूरे हो गये हों । कुमार ने किनारे पर आकर विचार किया-'मैंने वैद्यक शास्त्र में सुना है कि जब मनुष्य को असह्य भूख-प्यास या थकावट हो तो तत्काल पानी न पीये । तत्काल पानी पीने से सातों धातुएँ प्रकुपित हो जाती हैं और वात, पित्त तथा कफ के दोष उत्पन्न होते हैं । इस तृतीय प्रस्ताव