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________________ कुवलयमाला-कथा [131] ही यहाँ लाया है। इन सब बातों की खातिरी के लिए पूर्व भव के ये रत्नों के बने हुए आकार (स्वरूप) देख लो।" मुनि की बात सुनकर कुवलयचन्द्र ने अपने पूर्व भव का स्वरूप तथा कुवलयमाला आदि के पूर्वभव की स्मृति कराने वाले दूसरे रूप देखे। उन रूपों को देखते ही कुमार तथा सिंह को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। ___ मुनि ने कहा- हे कुमार! तू विचार कर कि संसार असार है। नरक की व्यथाएँ महातीक्ष्ण हैं। श्री जिनेन्द्र प्ररूपित धर्म दुर्लभ है। संयम का भार सहना कठिन है। घर में निवास करना बन्धन के समान है। स्त्रियाँ सख्त बेड़ी के समान हैं। अज्ञान महान् भयकारक है। धर्मगुरुओं का मिलना सुलभ नहीं है। बड़े सौभाग्य से मनुष्य जन्म मिलता है। ऐसा समझकर तू सम्यक्त्व को ग्रहण कर, बारह व्रतों को स्वीकार कर और अठारह पाप स्थानों का त्याग कर। ____ गुरु के मुख से इस प्रकार अपने पूर्वजन्म तथा अश्व के द्वारा हरण किये जाने का वृत्तान्त सुनकर कुवलयचन्द्र का हृदय भक्ति से भर गया। वह बोला"पूज्य आपने सम्यक्त्व के दान रूप प्रसाद से मुझ पर बड़ा उपकार किया है। अब मुझे जिनेन्द्र दीक्षा देकर विशेष अनुग्रह कीजिये।" मुनि- कुमार! तुम अधिक उत्सुक न होओ, क्योंकि अभी तुम्हारा भोग -फल वाला कर्म बाकी है। इसलिए अभी दीक्षा मत लो। इस समय श्रावक के बारह व्रतों का पालन करो। कुमार-'पूज्य! सुनिये। आज से जिनेश्वर देव और साधुओं के सिवा किसी को नमन नहीं करूँगा तथा श्रावकधर्म का पालन करूँगा। मुनि-'एवमस्तु।' मुनिराज फिर सिंह से कहने लगे- सिंह ! तू ने भी अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुन लिया है। हम भी उसी प्रतिज्ञा को स्मरण करके यहाँ आये हैं। इसलिए तू सम्यक्त्व को स्वीकार कर, देशविरति का पालन कर, क्रूरता त्याग दे, प्राणियों की हिंसा को छोड़ और क्रोध का बिल्कुल त्याग कर। दुष्ट क्रोध से ही तू सिंह की पर्याय में आया है। यह वचन सुनकर सिंह के शरीर में रोमाञ्च हो आया। वह अपनी पूँछ हिलाता हुआ उठा और मुनि को प्रणाम करके 'पच्चक्खाण' माँगा। मुनि ने ज्ञान तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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