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________________ [130] कुवलयमाला-कथा में पद्मवर देव हुआ था, वह दक्षिणदिशा में जया नामक नगरी में श्री महासेन राजा की पुत्री कुवलयमाला हुआ है। तपस्वी के भव में पहले- उन्होंने मुझसे कहा था कि हम चाहे जहाँ उत्पन्न हुए हों, पर तुम हमें सम्यक्त्व देना। जिस समय उनकी यह प्रार्थना मुझे याद आई, उसी समय इस पद्मकेशर देव ने आकर मेरी स्तुति की-“हे अवधिज्ञानी! तथा सर्व प्राणियों के पूर्वभवों को जानने वाले मुनीश्वर! आपकी जय हो, आप ही हमारे धर्माचार्य हैं।" यह सुनकर मैं ने उसे पहचान लिया। मैंने कहा-"भद्र! क्या करना चाहिए? सो कहो।" देव - भगवन् ! मैंने पहले स्वीकार किया था कि मैं पद्मसार, पद्मवर और पद्मचन्द्र के जीवों पर अनुग्रह करूँगा, सम्यक्त्व प्राप्त कराऊँ गा। उनमें से दो तो मिथ्यादृष्टि के कुल में उत्पन्न हुए हैं और एक सिंह हुआ है। उन तीनों को जिनेन्द्र भगवान् के दुर्लभ मार्ग का बोध कराना चाहिए। इसलिए आप पधारें तो हम-लोग अयोध्या पुरी में चल कर कुवलयचन्द्र कुमार को प्रतिबोध करें।" मैं- तुमने जो उपाय बताया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि सुख में मग्न मनुष्यों को धर्म में प्रीति नहीं होती। नीरोग मनुष्य को औषधि के प्रति तनिक भी आदर नहीं होता। इसलिए राज्य के सुख में डूबे हुए और माता, पिता, भ्राता, भगिनी, स्वजन तथा मित्रों से कभी दूर न रहने वाले कुमार को बोध के लिए अवसर ही कहाँ होगा? मनुष्य जब तक माता-पिता और भ्राता के वियोग से दु:खी नहीं होते तब तक वे धर्म कार्य नहीं कर सकते। हे भद्र! इसलिए अभी तू कुमार को वन में लाने के लिए जा। मैं वहाँ जाता हूँ जहाँ चण्डसोम सिंह हुआ है। वहीं कुमार पिता और बन्धुओं के वियोग के कारण सरलता से सम्यक्त्व ग्रहण कर सकेगा। मैं इतना कहकर यहाँ जंगल में आया और पद्मकेशर देव तुझे लाने के लिए रवाना हुआ। उस समय उसने तुझे घोड़े पर सवार होकर वाहकेलि के लिए निकला देखा। वह उसी घोड़े के शरीर में घुस गया और तुझे आकाश मार्ग से उठा लाया। तुमने आश्चर्य के साथ यह हाल देख कर घोड़े पर कटार का प्रहार किया। देव ने तुम्हें घोड़े को मरा हुआ दिखला दिया, परन्तु वह सचमुच मरा नहीं है। देव ने सिर्फ तुम्हारे मन की आशा भङ्ग की है। कुमार! तुम्हें सम्यक्त्व प्राप्त कराने के लिए घोड़े के द्वारा तुम्हारा हरण करके यह देव तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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