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कुवलयमाला-कथा
__ [127] सो मैं कुछ नहीं जानती। हाँ, तुम्हें हवा करते देखा। तुम कहाँ से आये हो? कहाँ के रहने वाले हो? इस दुर्गम द्वीप में कैसे आये सो बताओ।"
यह सुनकर सागरदत्त ने सात करोड़, द्रव्य उपार्जन करने की प्रतिज्ञा से लगाकर जहाज भग्न हो जाने तक का सारा हाल कह सुनाया। सागरदत्त का हाल सुनकर वह बोली "इस प्रकार उल्टा कार्य होने से अब क्या करना है?"
सागरदत्त- प्राण भले ही चले जायें पर सत्पुरुष प्रतिज्ञा को भङ्ग नहीं करते।
स्त्री- भद्र! प्रतिज्ञा का निर्वाह होना तो भाग्य के अधीन है, इसमें तुम्हारा जरा भी दोष नहीं है। इसलिए अब तुम क्या करना चाहते हो?
सागरदत्त- मुझे समुद्र में भ्रमण करते-करते अब तक ग्यारह महीने हो चुके हैं। अभी बारहवाँ महीना चालू है। एक महीने में किस प्रकार सात करोड़ द्रव्य उपार्जन कर सकता हूँ? कदाचित् उपार्जन भी कर सकूँ तो उतना धन घर कैसे ले जा सकता हूँ? सुन्दरी! मेरी प्रतिज्ञा भ्रष्ट हो गयी और प्रतिज्ञा को भ्रष्ट करके अब जीवित रहना उचित नहीं है। इस लिए मैं तो अग्नि में प्रवेश करूँगा।
स्त्री- प्रतिज्ञा के भ्रष्ट होने से तुम यदि अग्नि में प्रवेश करना चाहते हो तो मैं भी पति के वियोग से तुम्हारी ही तरह अग्नि की साधना करूँगी। तुम कहीं से अग्नि खोज लाओ।
सागरदत्त-भद्रे! तुम्हें वैसा करना उचित नहीं है।
स्त्री-मैं इस वन में रह कर क्या करूँगी? मैं भी अवश्य चिता में प्रवेश करूँगी।
सागरदत्त ने चिता बनाकर अरणि की लकड़ियों को आपस में रगड़ कर अग्नि सुलगाई। फिर वह बोला- "हे लोकपालों! तुम सुनो। मेरी प्रतिज्ञा एक वर्ष में पूरी नहीं हो सकती, इसलिए मैं अग्नि में प्रवेश करता हूँ।" इतना कहकर सागरदत्त अग्नि में प्रविष्ट हो गया, परन्तु दैवी-लीला से वह अग्नि कमल की तरह शीतल हो गई। यह हाल देखकर कौतूहल-पूर्ण हृदय से सागरदत्त ने सोचा-'अरे यह तो उलटी बात हो गई। क्या यह स्वप्न है? मन की भ्रान्ति है? अथवा कोई इन्द्रजाल है? जिससे यह चिता भी शतपत्र-कमल की नाई
तृतीय प्रस्ताव