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________________ [126] कुवलयमाला-कथा तुम्हें सेज पर सोती देखा। मैंने समझा-'यह कृशोदरी तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दरी है।' बस मैं तुम पर मोहित हो गया। तुम मेरे मन में प्रवेश कर गई। सुन्दरी ! किसी आदमी को दैवयोग से किसी पर इतना अधिक प्रेम उत्पन्न हो जाता है कि वज्रलेप की तरह लगा हुआ प्रेम दूर नहीं किया जा सकता। फिर मैंने यह सोच कर कि यहाँ किसी दूसरे उपाय से काम नहीं चल सकता तुम्हें सोई हुई अवस्था में ही वहाँ से हरण कर लिया और अपने बड़े-बूढों के भय की संभावना से अपने नगर की ओर न ले जाकर इस निर्जन द्वीप में तुम्हें लाया हूँ। इसलिए मेरे साथ भोग भोगो और मन में दुःख न करो।" ____ यह सुनकर मैंने विचार किया-'मैं अभी कन्या हूँ। मेरे माता-पिता ने किसी के साथ ब्याह नहीं किया है। मुझे कोई वणिक् ब्याहेगा, इसकी अपेक्षा सुन्दर आकृति वाला और तीन लोक की स्त्रियों का प्यारा यह विद्याधर प्रेम से मोहित मन होकर यदि पाणिग्रहण करे तो मुझे कौन सा सुख न मिलेगा?' ऐसा विचार कर मैंने कहा- "तुम मुझे इसे अरण्य में लाये हो तो जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो।" उसका मन खुशी से भर गया। इतने में ही तीखी तलवार खींचे हुआ एक भयानक विद्याधर आया और 'अरे नीच! कहाँ जाता है?' कहता हुआ मेरे प्रिय विद्याधर पर प्रहार करने लगा। मेरा पति भी हथियार खींचकर "अरे दुष्ट! मेरी कलाओं का नाश करने वाले!! कहकर उसके साथ युद्ध करने लगा। इसके अनन्तर दोनों युद्ध करते-करते तीक्ष्ण तलवारों की चोट से एक दूसरे का मस्तक काट कर पृथ्वी पर गिर पड़े। इस घटना से मुझे अत्यन्त दुःख हुआ। मैं विलाप करने लगी- "हा प्यारे! हा सौभाग्य के खजाने!! अपने रूप की निधि से कामदेव को पराजित करने वाले हे स्वामी !!! इस निर्जन वन में मुझे अकेली छोड़कर कहाँ चले गये? हे प्राणेश! मुझे मेरे घर से लाकर यहाँ वन में अकेली छोड़कर तुम कहीं न जाओ। मुझे अपने घर ले चलो।" इस प्रकार विलाप करके अन्त में मैंने मरने का निश्चय किया और फिर कभी संसार के ऐसे दु:खों की पात्री मैं न बनूँ-ऐसा सोचकर मैंने लतागृह की लताओं का पाश (फँदा) बनाया। अपनी आत्मा को शोक तथा स्त्रीजन्म की निन्दा करती हुई मैं ने कुलदेवी का स्मरण तथा माता-पिता को प्रणाम करके गले में फन्दा डाला। इसके बाद क्या हुआ? तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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