________________
कुवलयमाला-कथा
[125] वन देवता है, ऐसी स्त्री अपने गले में फाँसी लगाई हुई नजर आई स्त्री बोली -"वन की देवियों! सुनो! अब फिर दूसरे जन्म में मुझ पर ऐसी न होना" इतना कह कर उसने अपने गले में फाँसी लटकाई। इसी समय करुणा के आधार सागरदत्त ने पहुँच कर उसकी फासी फौरन काट डाली। वह पृथ्वी पर जा गिरी। सागरदत्त ने हवा करके उसे तसल्ली दी और चन्दन की कोंपलों के रस से उसके वक्षःस्थल पर लेप किया। इससे उसे होश आगया। किन्तु अपने पास बैठे हुए सागरदत्त को देख कर उसके हृदय में भय उत्पन्न हुआ। इसलिए वह वहाँ से जाने लगी। उस समय सागरदत्त ने उससे कहा"कृशोदरी! क्या तुम कामदेव की स्त्री (रति) हो। वनदेवी हो? या कोई दूसरी स्त्री हो? तुमने अपने को किस कारण से इस विपत्ति में डाला है? यह सब हाल कहो।" स्त्री ने उत्तर दिया-"मैं कामदेव की स्त्री नहीं हूँ, न वन की देवी हूँ। मैं अपना सच्चा वृत्तान्त बतलाती हूँ, ध्यान देकर सुनिये
दक्षिण समुद्र के किनारे जयतुङ्गा नाम की एक नगरी है। उसमें कुबेर की तरह धनाढ्य वैश्रमण नाम का सेठ रहता है। मैं उसकी अत्यन्त प्यारी पुत्री हूँ। एक बार दिन के समय मैं अपने निवासगृह के जड़ाऊ अगासी में सेज पर सो रही थी। कुछ समय बाद अनेक पक्षियों और जंगली जानवरों की आवाज से जागकर मैंने आँखें खोली तो यह अरण्य दिखाई दिया जिसमें सैकड़ों वृक्षों के पौधों की पङ्क्तियों के कारण सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर सकतीं। इसे देखकर भय के आवेश से मेरा शरीर काँपने लगा। मैंने विलाप करना प्रारम्भ किया कि-हे पिताजी! मुझ निराधार को तुमने क्यों त्याग दिया? अब इस भयङ्कर अरण्य में मुझे कौन शरण देगा? मैं इस प्रकार विलाप कर रही थी कि इतने में किसी लतागृह में छिपा हुआ दिव्य वेषधारी पुरुष 'मैं तेरी शरण हूँ' कहता हुआ मेरी ओर आया। उसे देखकर मुझे दुगुना क्षोभ हुआ। मैं रोने लगी। वह पुरुष मेरे पास आकर कहने लगा "हे सुन्दर अङ्ग वाली! मैं तुम्हारा जरा भी अनिष्ट नहीं करूँगा। तुम्हारे रूप पर मेरा मन ललचा गया, इसलिए मैंने ही तुम्हारा हरण किया है।"
"सुन्दर मुखवाली! सुनो मैं वैताढ्य पर्वत पर निवास करने वाला महाबलवान् विद्याधर हूँ। मैं देवाङ्गनाओं के मन में भी विकार उत्पन्न कर देता हूँ। आज मैं समस्त पृथ्वीतल देख रहा था, उसी समय ऊपर की अगासी पर
तृतीय प्रस्ताव