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कुवलयमाला-कथा शीतल हो गई है! 'सागरदत्त इस भाँति विचार ही रहा था कि आकाश में पद्मराग मणि का बना हुआ और मोतियों के अवचूल से शोभित विमान नजर आया। उसमें एक देव सुन्दर काञ्चन का मुकुट धारण किये हुए बैठा था। उसका शरीर जाज्वल्यमान दीप्ति से देदीप्यमान हो रहा था। कानों में पहने हुए अखण्ड कुण्डल हिल रहे थे। मुँह से निकलती हुई मुस्कान से उसके होठ खिल रहे थे। उसने अपने दाँतों की चमकीली किरणों से दिशा रूपी स्त्रियों के मुख देदीप्यमान कर दिये थे। देव ने सागरदत्त से कहा-"सागरदत्त ! जिसका कायर लोग आश्रय लेते हैं और पण्डित लोग निन्दा करते हैं, ऐसा आत्मघात करना तुमने क्यों प्रारम्भ किया है? भद्र! प्राणनाथ के दुःख से संतप्त स्त्री यदि चिता में प्रवेश करने का साहस करे तो ठीक भी है, परन्तु तुझे ऐसा करना ठीक नहीं। भद्र! तू हमारे साथ सौधर्म विमान में देव हुआ था, वहाँ तू ने कर्केतन, इन्द्रनील और पद्मराग मणियों के ढेर के ढेर छोड़ दिये थे, तो इस सात करोड़ धन से क्या होना-जाना है? इसलिए तू सम्यक्त्व, रात्रि भोजन त्याग
और पाँच महाव्रत रूपी सात करोड़ द्रव्य को ग्रहण कर। यदि तुझे द्रव्य की ही अभिलाषा हो तो उससे तिगुना इक्कीस करोड़-धन ले। मेरे विमान में बैठ जा। मैं तुझे शीघ्र ही तेरे घर लेचलूँगा।" इस प्रकार के वचन सुनकर तथा उस देव की ऋद्धि देखकर अच्छी तरह विचार करते-करते सागरदत्त को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने सोचा- 'मैं पद्मप्रभ नामक देव था, वहाँ से चय कर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ। यह पद्मकेशर नाम का देव है। देव-भव में मैंने इससे कहा था कि तू मुझे तीर्थङ्कर भगवान् के धर्म का बोध देना। इस बात को स्मरण करके इस देव ने मुझे मृत्यु से बचाया है। अहो! इसकी प्रतिज्ञा कैसी दृढ है? यह कैसा परोपकारी है? अहो! यह कैसा प्रेमपरायण है? और यह मैत्री की कैसी रक्षा करता है? मनुष्य भव में जीवन ही सार है और जीवन में सुन्दर प्रेम ही सार है, प्रेम में परोपकार ही प्रधान है और परोपकार अवसर देखकर करना ही उत्तम है।" ऐसा विचारकर सागरदत्त ने देव को प्रणाम किया। देव ने कहा-"तुझे पूर्व जन्म स्मरण हो गया, यह बहुत अच्छा हुआ।"
सागरदत्त - आपने संसार में गिरने से मेरी रक्षा की, यह बहुत ही उत्तम किया है। अब मैं क्या करूँ?
तृतीय प्रस्ताव