________________
कुवलयमाला-कथा
[123] पड़ता है। इसके चरणों में प्रणाम करना उचित है। सागरदत्त ने उसे प्रणाम किया और उसके पास बैठ गया। बूढे सेठ ने भी अत्यन्त आदर के साथ उसका स्वागत किया। उस समय नगरी में कोई उत्सव था, इस कारण सेठ की दुकान पर आस पास के गाँवों के लोग बड़ी उत्सुकता से चीजें खरीदने आये। सेठजी का शरीर बुढ़ापे के कारण बिलकुल शिथिल हो गया है, इसलिए वह एकदम बहुत चीजें नहीं दे सकते ऐसा जानकर सागरदत्त बोला- "पिताजी! दुकान से चीजें लाकर तुम मुझे देते जाओ और मैं युक्ति से तौल तौल कर ग्राहकों को देता जाऊँ। यह कहकर वह तौल-तौल कर देने लगा। 'यह आदमी जल्दी माल देता है। यह देख सब ग्राहक उसी दुकान पर आने लगे। सागरदत्त ने उन सबको फौरन माल देकर विदा किया। उस माल के बेचने में सेठजी को बहुत ज्यादा नफा हुआ। सेठ जी ने सोचा-'यह लड़का किसी बड़े कुल में पैदा हुआ और पुण्यात्मा जान पड़ता है। इसलिए यदि मेरे ही घर रहे तो बहुत अच्छा हो।' फिर वह बोला-"बेटा! तू कहाँ से आया है?" सागरदत्त ने जवाब दिया-"पिताजी! मैं चम्पा नगरी से आया हूँ।" सेठ ने कहा-"बच्चे! तू मेरे घर को शोभित कर, मेरे घर पर रह।" सागरदत्त सेठ के साथ उसके घर चला गया। सेठ ने अपने पुत्र की तरह प्रेमपूर्वक भोजन-पान से उसका सत्कार किया।
इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए। सागरदत्त के गुणों से वृद्ध सेठ का मन सन्तुष्ट हो गया। उसने नवीन खिले हुए यौवन वाली, मुख चन्द्रमा की कान्ति से युक्त विकसित कमलपत्र के ऐसे बड़े-बड़े नेत्रों वाली रति के समान मनोहर अपनी कन्या सागरदत्त को देना चाहा। किन्तु सागरदत्त ने उसके साथ ब्याह करना स्वीकार न किया। उसने कहा- "पिताजी! मैं कुछ कहना चाहता हूँ वह यह कि मैं अपने घर से किसी कारण से निकला हूँ। यदि मेरा वह कार्य सिद्ध हो गया तो आप जो कहेंगे, अवश्य करूँगा। कदाचित् सिद्ध न हुआ तो अग्नि ही मेरे लिए शरण है। इसलिए पिताजी! अभी इस विषय में आप आग्रह न कीजिये।" सेठजी बोले-"अच्छा, यदि ऐसा ही है तो मैं तुम्हारी क्या सहायता करूँ?" सागरदत्त- “ यदि आप हमारे सच्चे पिता ही हैं तो मेरी पूँजी से समुद्र के उस पार ले जाने योग्य माल खरीद कर दीजिये और एक जहाज भाड़े पर दिलवा दीजिये। मुझे समुद्र पार जाना है।" सेठजी ने 'बहुत अच्छा'
तृतीय प्रस्ताव