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कुवलयमाला - कथा
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क्या प्रशंसा है? जो पुरुष अपने बाहु-बल से कमाये हुए धन को इस प्रकार खर्च करे वही प्रशंसा का पात्र है ।" यह सुनकर सागरदत्त ने सोचा - 'लोग मेरी हँसी उड़ाते हैं।' यह वचन उसके मन में काँटे की तरह चुभ गया । वह बहुत ही लज्जित होकर, आपत्ति में पड़े हुए आदमी की तरह खिन्न - चित्त होकर अपनी शय्या पर बैठा। कहा भी है
विज्ञानामप्यविज्ञानां, मुदे मिथ्याऽपि स्तुतिः ।
निन्दा सत्याऽपि विज्ञानामपि दुःखाय जायते ।।
अर्थात् झूठी प्रशंसा भी बुद्धिमान् और मूर्ख दोनों को प्रसन्न कर देती है किन्तु निन्दा यदि सच्ची हो तो भी बुद्धिमानों को उससे दुःख होता है । चेष्टा और आकृति मनोभाव जानने में कुशल उसकी स्त्री श्री ने उस समय सोचा'मालूम होता है किसी कारण से आज मेरे पति को उद्वेग (खेद) हो रहा है । ' कहा है
जानन्ति जल्पितादपि, निःश्वसितादपि विलोकितादपि च ।
ते परमनांसि येषां मनःसु वैदग्धमधिवसति ।।
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अर्थात्-जिनके मन में चतुराई होती है वे दूसरों के मन की बात बोली से, स्वासें छोड़ने से और देखने से जान लेते हैं।
फिर वह बोली- “स्वामिन्! आज तुम उदास कैसे मालूम होते हो?" सागरदत्त अपनी आकृति को छुपा कर बोला - "प्रिये ! कुछ नहीं है । आज शर पूनम के दिन कौमुदी के महोत्सव देखने से बहुत थकावट हो गई है, इसलिए ऐसा मालूम होता है, और कोई कारण नहीं है ।" इतना कहकर वह चुप हो गया। इसके अनन्तर रात में शयनगृह में वह थोड़ी देर बनावटी नींद में सोया और क्षण भर में ही कुछ विचार करने लगा। अपनी स्त्री को सो गयी जानकर वह धीरे-धीरे उठा। उसने एक कपड़े का टुकड़ा पहना और एक टुकड़ा कन् पर रख लिया। फिर उसी शयनगृह में के ऊपर अपना बनाया हुआ एक श्लोक खड़िया के टुकड़े से लिखा । वह श्लोक यह था
वर्षान्तरे न यद्यस्मि, सप्तकोटीः समर्जये ।
विशामि ज्वलनेऽवश्यं, ज्वालामालाकुले ततः ।।
तृतीय प्रस्ताव