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________________ . [120] कुवलयमाला-कथा नामकी कन्या से ब्याह दिया। वह उसके साथ इच्छानुसार सदा विषय-सुख भोगता था, कि इतने में शरद् ऋतु की शोभा प्राप्त हुई। जैसे न्यायी पुरुष लक्ष्मी पाकर विनीत हो जाते हैं उसी प्रकार फलों को पाकर कलामशालियाँ नम्रता धारण करने लगी। जल सत्पुरुषों के हृदय की तरह निर्मल हो गया। सप्तवर्ण वृक्षों के फूलों की सुगन्ध से समस्त दिशाएँ सुगन्ध-युक्त हो गईं। तीव्रकरसूर्य-दुष्ट राजा की भाँति सारे पृथ्वीमण्डल को अपने तीव्रकरों से मनमाना ताप पहुँचाने लगा। मदिरा से जीने वाले कलाल भी सन्मार्ग के दूत से हो गये। सरोवर के अलंकार रूप राजहंस आकर क्रीड़ा करने लगे। ऐसे शरद् ऋतु के समय में सागरदत्त अपने स्नेही और मुग्ध बन्धुजनों के साथ नगरी के बाहर गया। वहाँ कौमुदी (चाँदनी) का महोत्सव देखकर वह जब वापस लौट रहा था तो किसी चौराहे पर, नटों की टोली में से एक नट किसी कवि का बनाया हुआ एक श्लोक बोला! उसने यह श्लोक सुना। वह यह था यो धीमान् कुलजः क्षमी विनयवान् वीरः कृतज्ञः कृती, रूपैश्वर्ययुतो दयालुरमदो दाता शुचिः सत्रपः। सद्भोगी दृढसौहृदोऽतिसरलः सत्यव्रतो नीतिमान्, बन्धूनां निलयो नृजन्म सफलं तस्येह चामुत्र च।। अर्थात्-जो मनुष्य बुद्धिमान्, कुलीन, क्षमावान्, विनयवान्, वीर, कृतज्ञ, निपुण, रूपवान्, ऐश्वर्यवान्, दयालु, अभिमान-रहित, दानी, पवित्र, लजावान्, अच्छा भोगी, दृढ मैत्री वाला अत्यन्त सरल स्वभाव वाला, सच्चा, नीतिमान् और बन्धुओं का सहारा हो, उसका मनुष्यजन्म इस लोक और परलोक में सफल है। ___ इस सुभाषित काव्य के रस से सागरदत्त का चित्त अति प्रसन्न हुआ। उसने कहा-"भरतपुत्र! तेरी कविता से प्रसन्न होकर तुझे एक लाख का धन देता हूँ।" यह सुनकर किसी ने उसकी प्रशंसा की-"अहो! यह सागरदत्त सेठ बड़ा रसिक है, चतुर है, दातार है, अवसर का जानकार है और बड़ा सात्त्विक है।" यह बात सुन दूसरे लोग बोले-“ओहो! इसमें इसकी क्या प्रशंसा करते हो? इसके पुरुखों ने तो द्रव्य कमाया है, वह उसे यह याचकों को दे रहा है। इसमें इसकी १. सूर्य तेज किरणों से और राजा अधिक कर से ताप पहुँचाता है। तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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