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कुवलयमाला-कथा
[117] ऐसा प्रकाश करते हैं मानो स्त्रियों के हृदयों में उठी हुई विरहाग्नि की चिनगारियाँ उड़ रही हों। ऐसे समय में योगियों का भी मन चञ्चल हो उठता है तो दूर रहने वाले बेचारे मुसाफिरों के मन का कहना ही क्या है? वर्षा ऋतु सब प्राणियों को प्यारी लगती है, परन्तु वियोगिनी स्त्रियों को अत्यन्त निष्ठुर लगती है। उस समय मयूर नाच करते हैं, मेघ गर्जना करते हैं, और बिजली चारों दिशाओं में चमचमाहट करती है। 'मेरे आने पर भी ये प्याऊ क्यों बनी हुई हैं? ऐसा आक्षेप करता हुआ मेघ खूब जल की वर्षा करके समस्त प्रपाओं को व्यर्थ कर देता है। ऐसे वर्षाऋतु के मौसम में मित्रकुमार नगर से बाहर जाकर, रस्सी से बाँधे हुए पशु-पक्षियों के साथ क्रीड़ा करेगा। इतने में उसी स्थान से होकर एक अवधिज्ञानी मुनि निकलेंगे। मुनि पीछे लौटकर कुमार की चेष्टा देख कर ज्ञान का उपयोग लगावेंगे और सोचेंगे-'अहो, इसकी कैसी जघन्यतर प्रकृति है? परन्तु इसका कारण क्या है? ऐसा सोचकर अवधिज्ञान के प्रयोग से देखने पर मुनि हथेली में रखे हुए कमल की तरह ताराचन्द्र के भव में साधुपन, ज्योतिषी विमान में देवपन, चूहापन, फिर इस भव में प्राप्त हुआ राजकुमारपन, ये सब बातें जानेंगे। इसलिए 'यह जीव बोध देने योग्य है' ऐस विचार कर मुनि कहेंगे-'राजकुमार! पहले जन्म में प्राप्त हुआ साधुपन, देवपन और चूहापन, तुझे याद हैं कि नहीं? क्यों इन जीवों को वृथा सता रहा है?' साधु के वचन सुनकर कुमार विचार करेगा-'अहो, इस साधु ने मुझ से क्या कहा है? साधु, ज्योतिष्क देव, चूहा। मुझे याद आता है कि ये शब्द पहले भी कभी मैंने सुने हैं, ऐसा ऊहापोह करते समय कुमार को उस प्रकार के ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होगा, फिर संसार को दुःखों का सागर जान कर उसी दम उन्हीं मुनि के पास वह दीक्षा ग्रहण कर लेगा। दीक्षा लेने पर नाना प्रकार के अभिग्रह करके तथा समाधि पूर्वक विविध प्रकार की तपस्या करके, क्षपकश्रेणी पर आरूढ होकर अन्तकृत केवली होगा। इन्द्र! इसलिए मैं कहता हूँ कि यह चूहा हम सब से पहले मोक्ष पा जावेगा क्योंकि मेरा आयुष्य अभी दस हजार वर्ष का बाकी है।"
भगवान् के मुख से चूहे का इस प्रकार का वृत्तान्त सुनकर इन्द्र आदि देवों तथा मनुष्यों के मन में बहुत ही कौतुक उत्पन्न हुआ।
तृतीय प्रस्ताव