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________________ कुवलयमाला-कथा [115] जाकर उन्हें नमस्कार करके पूछू कि मैं इस चूहे के भव के बाद कौनसा भव पाऊँगा? ऐसा विचार कर यह मेरे पास आया। इसका अन्त:करण भक्ति-भार से भर गया था। यह अपने मन में मेरी इस प्रकार स्तुति करने लगा- 'तीन लोक के मुकुट के समान भगवन्! इस संसार में जो प्राणी तुम्हारी आज्ञा का लोप करता है, वह चिरकाल तक दुर्गति में घूमता-फिरता है।' भगवान् ने मुख से चूहे का ऐसा वृत्तान्त सुनकर गणधर महाराज यद्यपि ज्ञानी होने से जानते थे, तो भी लोगों को प्रतिबोध हो, इस अभिप्राय से भगवान् से पूछने लगे-'प्रभो! इस चूहे ने पहले क्या पाप किया था, जिस के प्रभाव से यह चूहा हुआ है?" भगवान् ने उत्तर दिया-"पूर्व भव में जब यह साधु था, तब गच्छ में रहने रूप बन्धन से इसके चित्त में खेद हुआ था। जब यह 'बाह्य भूमिका' को गया था तब वहाँ इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए चूहों को देखकर इसने सोचा था कि 'इस जङ्गल में ये चूहे अत्यन्त धन्य हैं।' इस दुष्ट विचार रूपी शल्य के साथ इसने व्रतों का पालन किया था। इसके प्रभाव से इसने देव और चूहा दोनों की आयु बाँधी थी।" यह सुनकर गणधर ने भगवान् से फिर पूछा-"स्वामिन् ! सम्यग्दृष्टि जीव को तिर्यञ्च की आयु का बन्ध होता है या नहीं?" भगवान् ने कहा-" गणधर! सम्यग्दृष्टि जीव तिर्यञ्च-आयु को भोगता है, बाँधता नहीं है, क्योंकि यदि सम्यक्त्व को वमन न किया हो या सम्यक्त्व होने से पहले आयु का बन्ध न कर लिया हो तो वह अवश्य ही वैमानिक देव होता है। परन्तु इस चूहे ने देव-भव में सम्यक्त्व का वमन करके तिर्यञ्च की आयु बाँधी थी।" यह सब हाल सुनकर इन्द्र ने पूछा-"भगवन् ! यह चूहा यहाँ से वापस जंगल में जाता हुआ विचार करेगा कि 'अहो, संसार का अन्त बड़ी कठिनाई से होता है। कुश के अग्रभाग पर ठहरी हुई जल की बूंद के समान जीवन चञ्चल है और विषय का सुख भी क्षणिक है। इसलिए निदान आदि की शल्य रखना ठीक नहीं है। फिर चूहे की जाति महानीच है तथा जिन भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म दुर्लभ है, अतः इसी भव में महामन्त्र के ध्यान में लीन होकर मरना ही श्रेष्ठ है जिससे अब की बार ऐसा जन्म मिले कि जिसमें साधुपना लिया जा सके।' ऐसा विचार कर उसी जगह चारों आहारों १. आगामी विषय भोगों की इच्छा न रखना। तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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