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कुवलयमाला-कथा अर्थात् उपदेश के द्वारा स्वभाव नहीं बदला जा सकता, क्योंकि बन्दर को कितनी ही अच्छी तरह शिक्षा दी जाय, परन्तु वह अपनी कपिता(चञ्चलता)नहीं छोड़ता।
एक बार धर्मनन्दन सूरि 'बाह्यभूमि' के लिए जा रहे थे। ताराचन्द्र भी गुरु के पीछे-पीछे वन में गया। वहाँ चूहों को अपने इच्छानुसार क्रीड़ा करते देखकर उसने सोचा-'अहो! ये चूहे मनचाही क्रीड़ा करते हैं, किसी के आगे नमते नहीं हैं और दर्जनों के वचन भी कभी नहीं सुनते। ये चूहे बड़े भाग्यवान् मालूम होते हैं। हम तो इतने पराधीन हैं कि बेड़ियों का दृढ बन्धन न होने पर भी हमको सदा बन्धन में रहना पड़ता है। पर्वत और वृक्ष पर बिना चढ़े ही हमारा हमेशा उतने ऊँचे से पतन होता है, हम जीवित होने पर भी मरे हुए के समान ही हैं, क्योंकि एक कहता है- 'ऐसा कर' दूसरा कहता है'वैसा कर', तीसरा कहता है-'गुरु के चरण पखार (धो)' चौथा कहता है'भूमि का प्रमार्जन कर', पाँचवाँ कहता है-'वैयावृत्य कर', छठा कहता है'वन्दना दे', सातवाँ कहता है-'प्रतिक्रमण कर'। इस तरह पाँहुने जैसे वचनों से मुझे सदा प्रेरणा की जाती है। मैं पल भर भी नारकी जीवों की तरह कभी सुख का अवसर नहीं पाता। इसलिए ये चूहे मुझसे सुखी दीख पड़ते हैं।' इस प्रकार के विचार करता हुआ ताराचन्द्र मुनि कुछ समय तक चारित्र का पालन करके, पहले के बुरे विचार रूपी शल्य की गुरु के पास बिना आलोचना किये ही अकाल मृत्यु से मरकर ज्योतिष्क निकाय में कुछ कम एक पल्य की आयु वाला देव हुआ। वहाँ देवों के भोग-भोग कर आयु पूर्ण होने पर इसी नगरी के ईशान कोण में जङ्गल में चूहा हुआ। जब वह जवान हुआ तो अनेक चूहियों के साथ क्रीड़ा करने लगा। आज यह अपने बिल से बाहर निकला। इतने में सुगन्धी गन्धोदक और फूलों की वर्षा की सुगन्ध को सूंघकर, उसी सुगन्ध का अनुसरण करता हुआ यहाँ (समवसरण में) आकर धर्मोपदेश सुनने लगा। यहाँ मेरे वचन सुनने से इसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। इसने सोचा-'पहले भव में मैंने शल्य सहित व्रतों का पालन किया, इससे मैं ज्योतिष्क निकाय में देव हुआ, फिर वहाँ से जंगली चूहा हुआ हूँ। अहा! कर्म का कैसा फल है? संसार के विलास को धिक्कार है कि जिसके कारण मैं देव होकर फिर तिर्यञ्च गति में चूहा हुआ। पास में विराजे हुए भगवान् के चरणकमल के पास तृतीय प्रस्ताव