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________________ कुवलयमाला-कथा [113] और शुभ लक्षणों वाला पुत्र है।' ऐसा विचार कर प्रवर्तिनी ने तारा को पुत्र के साथ शय्यातर श्रावक के घर भेज दी। वह श्रावक उसे अपनी लड़की की तरह रख कर और कुमार का हमेशा भाँति-भाँति के अन्न पान और वस्त्रों से पालन करने लगा। कुछ दिन बीतने पर श्रम रहित और सुख से बैठी हुई तारा से प्रवर्तिनी जी ने पूछा-"बच्ची! अब तुझे क्या करना है?" तारा- पूज्य! मेरा पति, जो राजा था, वह, युद्ध में मारा गया है, उसके विन्ध्यावास नगर को कोशल राजा ने छिन्न-भिन्न कर डाला है और तमाम सेना कौए की तरह भाग गई है। मेरे पति का शत्रु कोशल राजा बहुत बलवान् सेना के सहित है और मेरा पुत्र सेना के बिल्कुल रहित है। मेरी राज्यलक्ष्मी मुझे फिर मिल जायेगी, ऐसी आशा मुझे बिल्कुल नहीं है। इसलिए इस मिले हुए मौके पर मैं ऐसा काम करना चाहती हूँ कि फिर कभी ऐसी विपत्ति न भोगनी पड़े। आप पूज्य हैं, मुझे जो आज्ञा देंगी, वही मैं अवश्य करूँगी। प्रवर्तिनी- पुत्री यदि तेरा यही निश्चय हो तो पुत्र ताराचन्द्र को दीक्षा लेने के लिए हमारे आचार्य के पास भेज दे और तू हमारे पास दीक्षा ले। इस प्रकार अपने दुःख को दबा। ऐसा करने से तू सब को नमस्कार करने योग्य होगी और संसार- सम्बन्धी तेरे सभी दुःख दूर हो जायेंगे। यह सुनकर तारा ने उनकी आज्ञा स्वीकार की और निष्कपट तारा ने तुरंत ताराचन्द्र को श्री अनन्तनाथ भगवान् के तीर्थ में विचरने वाले श्रीधर्मनन्दन आचार्य को व्रत ग्रहण कराने के लिए अर्पण कर दिया। आचार्य ने उसे विधिपूर्वक दीक्षा दी। __कुछ समय व्यतीत होने पर वह राजकुमार मुनि जवान हुआ और कर्म के वश से अभ्यास करने में आलसी हो गया। हमेशा तलवार, धनुष, गन्धर्व, नृत्य, वादित्र में मन दौड़ाने लगा। आचार्य महाराज ने सिद्धान्त के अनुसार उसे स्वयं मीठे वचनों से उपदेश दिया, उपाध्याय, साधु तथा दूसरे-दूसरे श्रावकों ने भी समझाया, तो भी उसका मन उसमें न लगा और अकार्य विचार से पीछे न हटा। कहा है स्वभावो नोपदेशेन, शक्यते कर्तुमन्यथा। सुशिक्षितोऽपि कापेयं, कपिस्त्यजति नोद्यतः।। तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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