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________________ [110] कुवलयमाला-कथा कैसे समर्थ हो सकता हूँ? इसलिए तीर्थपति! भिखारी की तरह मैं आप से यही माँगता हूँ कि मेरे मन को वीतराग भगवान् में आसक्त तथा वीतराग बनाओ।" तत्त्व दृष्टि वाला पद्मसार देव प्रसन्नता के साथ भगवान् की स्तुति करके अपने स्थान पर बैठ गया। धर्मचक्रवर्ती भगवान् धर्मनाथ ने अमृत रस को बहाने वाली और सम्यक् आचार को बढ़ाने वाली देशना देना प्रारम्भ किया- "हे भव्य प्राणियों! यह संसार असार है और सदा दुःखों का आगार है। ऐसे संसार में स्वर्ग और मोक्ष का दाता धर्म ही प्रशंसनीय है। इस संसार रूपी समुद्र में भ्रमण करते-करते प्राणी बड़े पुण्य से मनुष्य जन्म पाता है, जैसे जमीन में से रत्नों का खजाना पाता है। जो प्राणी ऐसे दुर्लभ मनुष्य भव को पाकर अपना खूब हित नहीं करता वह अन्त में अपने आपका शोक करता है। जैसे अग्नि की भयङ्कर ज्वाला से व्याप्त मकान में रहना उचित नहीं है उसी प्रकार दुःखों से भरे हुए संसार में रहना मनुष्य को उचित नहीं है। चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ मनुष्य भव पाकर विवेकी जनों को कदापि प्रमाद न करना चाहिए। जैसे कोई मूर्ख मनुष्य करोड़ों का धन छोड़कर एक कौड़ी लेवे, उसी प्रकार कितनेक मनुष्य जिनेश्वर प्ररूपित धर्म का त्याग करके विषयों से पैदा होने वाला सुख ग्रहण करते हैं। मनुष्यों की लक्ष्मी समुद्र की हिलोरों के समान है, संसार का सुख साँझ के बादलों की रेखा के समान क्षणिक है।" इस प्रकार देशना देकर भगवान् धर्मनाथ ठहरे। इतने में उनके मुख्य गणधर हाथ जोडकर भगवान् से बोले-“भगवन् ! करोड़ों देव, दानव, मनुष्य और तिर्यञ्चों से भरी हुई इस सभा में से कौन जीव पहले मोक्ष पावेगा?" __भगवान्- देवानुप्रिय! जिसे पूर्वभव का स्मरण हुआ है, जिसका मन संवेग को प्राप्त हुआ है, जिसकी गति निर्भय है, जो मेरे दर्शन से सन्तुष्ट हुआ है, जिसके नेत्रों से हर्ष के आँसू निकल रहे हैं, जिसके दोनों कान नाच रहे हैं ऐसा तुम्हारे पास जो चूहा आ रहा है, वह यहाँ के सब प्राणियों से पहले ही पाप से छूटकर सिद्धि पद पावेगा। भगवान् का इतना कहना था कि उसी दम सब राजाओं और इन्द्रों के नेत्र उस चूहे पर पड़े। इतने में भक्ति के भार से पुष्ट अङ्ग वाला वह चूहा श्रीधर्मनाथ प्रभु के पास आकर उनके पादपीठ पर लोटने लगा। इसके अनन्तर तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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