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________________ कुवलयमाला-कथा [109] अनन्तर साधु और साध्वियाँ पूर्व के द्वार से समवसरण में प्रवेश करके भगवान् को तीन प्रदक्षिणा देकर अग्नि कोण में बैठे। हर्ष से फूली हुई वैमानिक देवियाँ उसी प्रकार आकर उसी जगह साधु-साध्वियों के पीछे खड़ी हो गईं। फिर दक्षिण द्वार से प्रवेश करके क्रम से ज्योतिष्क भुवनपति और व्यन्तर देवियाँ आईं और विधिपूर्वक नैर्ऋत्य कोण में खड़ी हो गईं। फिर भुवनपति ज्योतिष्क और व्यन्तर पश्चिम द्वार से प्रवेश करके विधिपूर्वक वायव्य कोण में बैठे। फिर वैमानिक देव मनुष्य और मनुष्य स्त्रियाँ उत्तर के द्वार से ईशान कोण में बैठे। समवसरण में भगवान् के प्रभाव से किसी भी प्राणी को भय, मात्सर्य, पीड़ा, कटुक वचन, बन्धन या अहङ्कार न उत्पन्न होता था। दूसरे प्राकार में सिंह हाथी आदि स्वभाव से विरोधी प्राणी भी आपस में प्रीति युक्त होकर बैठे। तीसरे प्राकार में राजाओं की सवारियाँ, देवों और असुरों के विमान क्रमशः रखे गये। समवसरण की भूमि सिर्फ एक योजन की थी तो भी भगवान् के प्रभाव से उसमें करोड़ों प्राणी बिना किसी प्रकार की तकलीफ के अच्छी तरह समा गये। इस प्रकार सब व्यवस्था हो जाने पर त्रिलोकनाथ श्री धर्मनाथ भगवान् को नमस्कार करके पद्मसारदेव स्तुति करने लगा" पाप के नाश करने वाले प्रभो! जैसे वायु के द्वारा मेघों का नाश हो जाता है उसी प्रकार आज आपके दर्शन से मेरे सब पाप नष्ट हो गये हैं। स्वामिन् ! संसार में जो आपके चरण- रूपी कल्पवृक्ष की सेवा में तत्पर रहते हैं वे ऐसे आश्रय-स्थान को पाते ही नहीं हैं जिस पर दरिद्रता का सिक्का जमा रहता है। नाथ! कहा जाता है कि आप के मन राग से रहित हैं परन्तु यह बात मिथ्या है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो आपका मन मुक्ति रूपी स्त्री का आलिङ्गन करने में लोलुपी कैसे होता? धर्मनाथ! आपके अत्यन्त निरन्ध्र गुणों से मेरा चित्त ऐसे बँध गया है कि वह दूसरी जगह जा ही नहीं सकता। धर्मनाथ भगवन्! वह क्षण कब आवेगा? जब आप और मैं मोक्ष-स्थान में इकट्ठे होंगे। प्रभो! आपके चरण कमल की सेवा करने के लिए मेरा मन जितना उत्कण्ठित होता है उतना मोक्ष रूपी लक्ष्मी के लिए नहीं होता। स्वामिन्! आपका ज्ञान अनन्त है और मेरी बुद्धि तुच्छ है, इसलिए मैं आपके गुणों की स्तुति करने में असमर्थ हूँ। नाथ! विधि ने मुझे सिर्फ एक जिह्वा दी है और कान तथा आँखें दो-दो दी हैं, तो मैं आपकी कीर्ति की प्रशंसा करने में, गुण सुनने में और आपका रूप देखने में तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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