________________
[108]
कुवलयमाला-कथा थे। उन तोरणों पर शरद् ऋतु के समान बिलकुल सफेद ध्वजाएँ बाँधीं। वे ऐसी शोभित होती थीं, जैसे पुण्य रूपी लक्ष्मी के सुन्दर और विस्तार युक्त हाथ हों। हरेक दरवाजे पर सुलगते हुए अगर के चूर्ण से व्याप्त धूप घड़ियाँ शोभायमान हो रही थीं। प्रत्येक दरवाजे के पास सुवर्णकमलों से मनोहर बावड़ियाँ शोभा पा रही थीं मानो फड़कते हुए गृहस्थधर्म के व्रत की लक्ष्मी के क्रीड़ा करने के लिए ही हों। इसके बाद उस देवता ने मणि के प्राकार के पूर्व तरफ के दरवाजे पर दो द्वारपाल बनाये। वे सुनहरे रंग के थे और वक्षः स्थल में पड़े हुए सुन्दर हार से जगमगा रहे थे। फिर दो सफेद अङ्ग वाले द्वारपाल दक्षिण के द्वार पर बनाये मानो, साक्षात् साधुधर्म और श्रावक धर्म ही हों। रक्त रंग के दो द्वारपाल पश्चिम के द्वार पर बनाये, मानो सर्वज्ञ पर रहे हुए राग से ही रक्त हो गये हों, इसके बाद दोषों का नाश करने वाले मानो नीलंकास्यासक के हों इस प्रकार श्याम रंग के दो द्वारपाल उत्तर के द्वार पर बनाये। फिर उस देवता ने सुवर्ण के प्राकार में जिनेन्द्र भगवान् के विश्राम के लिए मणियों से एक देवच्छद बनाया। रत्नों के प्राकार में पाँच सौ चालीस धनुष ऊँचा एक चैत्यवृक्ष बनाया। इसके पश्चात् पद्मसार देव ने उस चैत्यवृक्ष के नीचे मणिपीठ के ऊपर पादपीठ सहित एक सुन्दर रत्न का सिंहासन बनाया।
इस प्रकार तैयार किये हुए समवसरण में सुवर्ण के नव कमल पर चरण रखते हुए करोड़ों देवों के साथ भगवान् ने पहले चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा की फिर "नमस्तीर्थाय" (तीर्थ को नमस्कार हो) कहकर पूर्व की ओर मुख रखकर सिंहासन के ऊपर विराजे। उसी समय पद्मसार देव ने दूसरी तीन दिशाओं में प्रभु के ही प्रभाव से उन्हीं जैसे तीन रूप बनाये। चारों गतियों के समस्त जीवों का उद्धार करने के लिए, मोह रूपी महाबलवान् योद्धा को जीतने के लिए चार कषाय रूपी शत्रुओं को परास्त करने के लिए, पापों को नाश करने वाले चार तीर्थों की स्थापना करने के लिए, दान, शील, तप और भावना इन चार प्रकार के धर्मों को स्पष्ट बताने के लिए तथा चार प्रकार के ध्यान का मार्ग बतलाने के लिए तीनों लोकों को पवित्र करने वाले श्रीधर्मनाथ तीर्थङ्कर देशना देते समय चार स्वरूपों को फैला कर चारों दिशाओं में मुख करके बैठे। इसके पश्चात् उस बुद्धि वाले देव ने स्वयं तीन लोक, तीन प्रकार का विनय और तीन तरह का ऐश्वर्य प्रगट करने वाले तीन छत्र भगवान् के ऊपर रक्खे। इसके तृतीय प्रस्ताव