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कुवलयमाला-कथा
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कि भगवान् विराजमान थे, आये । वहाँ पहुँचकर पद्मसार ने इन्द्र से निवेदन किया कि यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अकेला ही श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र का समवसरण रचूँ। इन्द्र ने उसे आज्ञा दे दी । शुद्ध अन्तःकरण वाले पद्मसार ने एक योजन तक पृथ्वी के ऊपर का बाह्य रज साफ करने के साथ ही अपने अन्त:करण का भी रज (पाप) साफ किया । फिर उसी ने पृथ्वी पर सुगन्धित जल की वर्षा की, मानो पुण्य का बीज बोया हो। इसके बाद भक्ति से भरे हुए उस पद्मसार देव ने प्रसन्नता के साथ सोने, मणियों और माणिक्यों से उस पृथ्वीतल को बाँध लिया। फिर उसने घुटनों तक और नीचे वृन्त वाले पाँच वर्ण के फूलों से पृथिवी की पहले पूजा की जिस पर श्रीधर्मनाथ भगवान् के चरणों का स्पर्श होने वाला था । उसने चारों दिशाओं में चार मनोहर तोरण बाँधे । उसके द्वारा रची हुई तरह-तरह की पुतलियाँ ऐसी शोभित होने लगीं जैसे अनुपम शोभावाली देवियाँ समवसरण को देखने के लिए साक्षात् आई हों । तोरणों के ऊपर फहराती हुई ध्वजाएँ ऐसी शोभित होती थीं, जैसे धर्मनाथ स्वामी के पास भव्य जीवों को बुला रही हों । फिर उस देव ने हरेक तोरण के नीचे पृथ्वी पीठ - पर आठ-आठ मङ्गल बनाये । तदनुसार उसने प्रसन्नता के साथ पाँच रंगों की मणियों के कँगूरे वाला रत्नों का पहला प्राकार (घेरा) बनाया। वह प्राकार ध्वजाओं की पंक्ति से सुशोभित था । वह ऐसा जान पड़ता मानो भक्ति के कारण अपने शरीर को सिकोड़ कर रोहणाचल आया हो । फिर भक्ति के निवास- स्वरूप उस देव ने रत्न के प्राकार के चारों ओर दूसरा सोने का प्राकार बनाया, मानो उसने अपनी कान्ति से ही उसे बनाया हो । उस प्राकार पर रत्नों
कँगूरों की पंक्ति इस प्रकार शोभा देती थी जैसे बहुत से द्वीपों से आये हुए सूर्यो की पंक्ति हो । उसने दूसरे प्राकार के बाहर फिर तीसरा प्राकार बनाया। वह चाँदी का था । वह ऐसा जान पड़ता था कि भगवान् को वन्दना करने के लिए स्वयं वैताढ्य पर्वत आया है। उस प्राकार पर सोने के कँगूरों की पंक्ति थी । वह ऐसी मालूम होती थी जैसे गङ्गा में सुवर्ण कमल उग आया हो । सातों पृथ्वियों के चारों ओर तीन-तीन वलय ( घनोदधि, घनवात और तनुवात) हैं। उनके समान तीनों प्राकार तथा नाना तरह की शोभावाली कँगूरों की पङ्क्ति सुन्दर दिखाई देने लगी । देव ने प्रत्येक प्राकार के चार-चार दरवाजे बनाए और प्रत्येक दरवाजे पर नीलमणि के तोरण बाँधे जो मोक्षलक्ष्मी की तरह सुन्दर
तृतीय प्रस्ताव