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कुवलयमाला-कथा दो, मन को निर्मल बनाओ, न्याय पथ के पथिक बनो और क्रोध आदि शत्रुओं का सत्तानाश करो। जिनेन्द्र के मुख से निकले हुए सिद्धान्तों को आदर से सुनो और सदा सुख देने वाली सिद्धि रूपी स्त्री के शीघ्र स्वामी बनो। मोक्ष को छोड़ कर दूसरा कोई स्थान सर्वसुखमय नहीं है। इससे प्राणियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही उत्सुक रहना चाहिए।
हे मन्त्री! ये नौ तत्त्व हैं। दान, शील, तप और भावना, यह चार प्रकार का धर्म है। पाँच आश्रवों से छुटकारा पाना, पाँच इन्द्रियों का निग्रह करना, क्रोध, मान, माया और लोभ, इन कठिनता से जीते जाने वाले शत्रुओं को जीतना, मन दण्ड, वचन दण्ड और काया दण्ड, इन तीन दण्डों से मुक्त होना, यह सत्तरह तरह का संयम है। नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देवगति, ये चार गतियाँ हौं। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं। अनित्यता, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशौच, आश्रव, संवर, निर्जरा, धर्मदुर्लभता, लोकस्वरूप और बोधिदुर्लभता, ये बारह भावनाएँ हैं। नवकारसी, पोरसी, पुरिमट्ठ, एकाशन, एक लठाण आयंबिल, उपवास, दिवस चरम, अभिग्रह और विगय-त्याग, यह दस प्रकार का प्रत्याख्यान है। अथवा, अनागत, अतिक्रान्त, कोटि सहित, नियन्त्रित, साकार अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, संकेत और अद्धा यह भी दस प्रकार का प्रत्याख्यान है। क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंश, अचेल, अरति, स्त्री, चर्या, निषेधिका, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन ये बाईस परीषह हैं। स्पर्शन, जिह्वा (रसना) नासिका, चक्षु और श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मण्यकी और पारिणामिकी, यह चार प्रकार की बुद्धि है। आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान यह चार प्रकार का ध्यान है या पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत यह भी चार प्रकार का ध्यान कहलाता है। सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीन रत्न हैं। कृष्ण लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, और शुक्ल लेश्या, ये छह लेश्याएँ हैं। सामयिक, चतुर्विंशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान, ये छह आवश्यक हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेज:काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, ये छह जीव-निकाय हौं। मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये
तृतीय प्रस्ताव
विनय पर दृष्टान्त