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कुवलयमाला-कथा
[97] साथ विहार करते हुए क्रमशः क्षमातिलक नगर में आये। वहाँ गुरु की आज्ञा लेकर मुनिराज मासक्षमण के पारणे के लिए नगर में घूमते घूमते विनीत मन्त्री के ही घर आये। उन्हें देख कर सब नौकरों ने कहा-"अहो, हमारे स्वामी के पिता कैसे दुबले हो गये हैं? और मुनिवेष धारण करके ऊँच-नीच आदि घरों में भिक्षा के लिए घूमते फिरते हैं, पाप-पुञ्ज का नाश करने वाले तथा कर्म के मर्म का उच्छेद करने वाले मुनि की सबने सहर्ष वन्दना की। लेकिन उनका दिया हुआ अन्न तथा जल 'अकल्प' जानकर मुनि अन्न-पान बिना लिये ही उपाश्रय आ गये। जब विनीत राजद्वार से घर आया तो हर्ष से भरे हुए नौकरों ने मुनि रूप पिता के आगमन का सार हाल कह सुनाया। सब समाचार सुन विनीतात्मा और श्रेष्ठ मन्त्री विनीत तुरन्त तप के पात्र रूप पिता के उपाश्रय को चला, वहाँ विषवाक्य मुनि के मुख-चन्द्र के दर्शन होते ही मन्त्रीश्वर विनीत का चित्त रूपी समुद्र हर्ष से उछलने लगा। लेकिन जब उसके मन में यह विचार आया कि मुनि मेरे घर गये, पर अन्न-जल को बिना ग्रहण किये ही वापस लौट आये तो उसे रञ्ज हुआ। इस प्रकार विचार करते हुए श्रद्धा से युक्त विनीत ने प्रथम गुरु महाराज को फिर अपने पिता को वन्दना की।
गुरु ने स्पष्ट वाणी से विनीत से कहा-“हे मन्त्रिनायक! धर्म के सुन्दर शब्दों को सुनो और शीघ्र ही पापों का अन्त करो। तुम संसार को बढ़ाने वाली मोह-ममता में मग्न न होओ और निश्चय से संसार को मिटाने वाले सच्चे धर्म का सत्कार करो। जैसे माता-पिता बालकों का हित करते हैं, वैसे ही धर्म प्राणियों का हित करता है। ऐसे हित कोई दूसरा नहीं कर सकता। वह धर्म साधुओं के लिए क्षमा आदि दस प्रकार का है और गृहस्थों के लिए सम्यक्त्व मूलक बारह प्रकार का है। अरिहंत देव पर, सच्चे साधुओं पर और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म पर सम्यक् प्रकार की दृढ़ वासना को सम्यक्त्व कहते हैं। तुम उसकी शरण लो और स्थूल अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों
और चार शिक्षा व्रतों-बारह व्रतों को मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त करने के लिए स्वीकार करो। मन्त्री! तुम तीनों काल विधि पूर्वक देव-पूजन करो तथा कुन्द के फूल के समान उज्ज्वल और सुन्दर यश चिरकाल तक प्राप्त करो। दीन जनों को दान
विनय पर दृष्टान्त
तृतीय प्रस्ताव