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________________ [96] कुवलयमाला-कथा को जोखिम में डाल करके भी दूसरे प्राणियों के प्राणों की रक्षा करते हैं। जब मृग दूर जा निकला और हाथ न आते देख शिकारी गुस्सा करने लगा तो विनीत ने कहा-"सभी प्राणियों को शरण देने योग्य आप जैसे उत्तम महात्माओं को दीन प्राणियों की हिंसा करना उचित नहीं है। इसके सिवाय, आपके इन चिह्नों से मालूम होता है कि आप कोई उत्तम क्षत्रिय हैं तो शस्त्रधारी पर ही शस्त्र का उपयोग करना क्षत्रियों को उचित है।" इस प्रकार के अमृत जैसे मधुर विनीत के वचन सुनकर शिकार खेलने निकले हुए राजा पृथ्वीचन्द्र ने प्रतिबोध पाकर क्रोध का त्याग किया- वह शान्त हुआ। राजा 'इसने मुझे धर्म का उपदेश दिया है' ऐसा सोचकर उपकार का बदला चुकाने के लिए उसे अपने साथ क्षमातिलक नगर ले गया। वहाँ ले जाकर राजा ने उसे सबका अधिकारी सचिव (मन्त्री) बना दिया। गुणों के कारण किसे आनन्द नहीं मिलता? विनीत के साथ उसके तीनों नौकर भी आये और सदा उसकी सेवा में तत्पर रहे। मन्त्री विनीत ने न्यायपूर्वक प्रजा का रक्षण करते हुए खूब यश पाया और आत्मा का कल्याण भी किया। एक बार विनीत ने नौकरों से स्नेह के साथ कहा "जो तुम्हारे जी में आवे, वही मुझ से माँगो।" वे बोले- "हमें किसी वस्तु की दरकार नहीं है।" अहा, ऐसे निर्लोभ सेवक भी भाग्य से ही मिलते हैं। ___ इधर अपनी सारी सेना लेकर चम्पा के राजा जितारि ने क्षमापुरी जाकर क्रोध के मारे सम्पूर्ण नगरी को छिन्न-भिन्न कर डाला। उस समय अपनी नगरी और नगरी के राजा के विनाश से तथा अपनी समस्त सम्पत्ति के चली जाने से विषवाक्य (विनीत के पिता) की आत्मा विनीत हो गई और उसने मुनिदीक्षा ले ली। तीव्र तपश्चर्या करते हुए, परिषहों को सहन करते हुए, सिद्धान्तों (शास्त्रों) का अभ्यास करते हुए और गुरु की आज्ञा का आराधन करते हुए, पाप कार्यों का त्याग करने वाले, धर्मकार्यों में श्रद्धा रखने वाले, प्राणिमात्र पर दया करने वाले मोक्षमार्ग की इच्छा करने वाले, उपसर्गों को सहन करने वाले, शील के सब अङ्गों को धारण करने वाले, साधुओं के आचार का पालन करने वाले, सिद्धान्त के मार्ग में चलने वाले करुणानिधान विषवाक्य मुनि, गुरु के तृतीय प्रस्ताव विनय पर दृष्टान्त
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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