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कुवलयमाला-कथा
[95] राजा श्रीहर्ष, चम्पा नगरी के राजा से धन दौलत हथियाने की लालसा से, अपने नौकर-चाकरों (फौज) को साथ ले, विनीत सेठ के साथ बड़ी खुशी से रवाना हुआ। श्रीहर्ष को आता जान चम्पेश भी सेना को साथ ले उसके सामने आया। दोनों का आपस में खूब घमासान युद्ध हुआ। घुड़सवार घुड़सवार को, हाथीसवार हाथीसवार को, रथी रथी को आपस में रोकने लगे और भयानक चेहरे वाले पैदल सिपाही पैदलों का सामना करने लगे। क्रोध को उत्पन्न करने वाले सुभटों ने तीखे तीरों की कतार से मानो अकाल में वृष्टि कर दी। ऐसा मालूम होने लगा जैसे काल रात्रि आ उपस्थित हुई है। तीखे बाणों की मार से हाथियों को करोड़ों घाव हो गये और वे घायल होकर पर्वत की तरह इधर उधर युद्ध के मैदान में ही गिरने-पड़ने लगे। जिनके अङ्गों में पैने भाले घुस गये थे, उनके अङ्गों में से उछलने वाले खून के बहने से, समुद्र रूपी वस्त्र वाली पृथ्वी ऐसी जान पड़ने लगी जैसे उसने कसूमी कपड़े पहन लिए होंपृथ्वी लहू से लथपथ हो गयी। बहादुरों के नाच करते हुए बिना सिर के धड़ शायद यह सोच कर कि हम स्वामी के ऋण से छूट गये, इधर-उधर शोभित होने लगे। भयानक युद्धभूमि, उछलते हुए रक्त रूपी पानी में योद्धाओं के मस्तकों को बहाती हुई नदी सी दिखने लगी। अन्त में दैवयोग से, चम्पेश के सैनिकों ने श्रीहर्ष की सेना को नीचा दिखा दिया, जैसे कौए उल्लुओं के झुण्ड को मार भगाते हैं। श्रीहर्ष की सेना क्षण भर में इधर-उधर अपनी जान बचाकर कौओं की तरह भाग उठी। यह दशा देख श्रीहर्ष भी भागा। जब राजा ही भाग गया तो जो पैदल सिपाही विनीत के साथ थे, वे सब नौ दो ग्यारह हो गये। लेकिन जैसे सुकृत आत्मा का त्याग नहीं करते तैसे उन तीनों नौकरों ने जो दुर्भिक्ष के समय विनीत के यहाँ नौकर रहे थे, साथ न छोड़ा। अन्त में विनीत भी अपने तीनों नौकरों के सहित भगने लगा, रास्ते में सरस्वती नदी आयी। विनीत ने उसमें स्नान किया, जलपान किया और उसके किनारे वह बैठ गया। ____ विनीत बैठा ही था कि दौड़ता हुआ एक हरिण उसके पास से निकला। उसे बडा त्रास हो रहा था। हरिण के पीछे-पीछे एक घुड़सवार शिकारी आता हुआ दिखाई दिया। विनीत ने उसी दम किसी उपाय से शिकारी को रोक रखा
और हरिण को भाग जाने का मौका मिला। क्योंकि उत्तम मनुष्य अपनी जान विनय पर दृष्टान्त
तृतीय प्रस्ताव