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कुवलयमाला-कथा बहू को बुलाया और उससे भी वही पाँच दानें माँगे। वह बोली-“वे पाँच दाने तो मैं ने खा लिये हैं।" यह उत्तर पाकर सेठ ने सबके सामने कहा-"यह भक्षिका बहू राँधने-पकाने का काम करे।" इसके बाद तीसरी बहू बुलाई गई। उससे भी वही पाँच दाने माँगे गये। उसने उन्हें बराबर सुरक्षित रखा था। उसने यह बात कही और लाकर दे दिये। सेठजी ने सन्तुष्ट होकर कहा "सज्जनों! यह रक्षिका नामक बहू मेरी आज्ञा से मेरे घर के खजाने की अधिकारिणी हो।" अब चौथी बहू का नम्बर आया। वह बुलायी गयी। उससे भी वही पाँचों दानें माँगे गये। वह बोली-"पिताजी! मुझे बहुत सी गाड़ियाँ और बड़े-बड़े बैल दीजिए तो वे शालि लाए जा सकते हैं।" बहू की यह बात सुन सेठजी ने पूछा"वे पाँच दानें गाड़ियों पर ढोने लायक कैसे हुए? बताओ।" रोहिणी ने आदि से लेकर अन्त तक का सारा हाल कह सुनाया। यह हाल सुन सेठ बहुत प्रसन्न हुआ और उसे बहुत सी गाड़ियाँ और बैल दिये। वह अपने पिता के घर से सब शालि लाद लायी। यह देख धन श्रेष्ठी बोले-"जिसे ऐसी बहू मिली है, वह धन्य है। देखो तो उसने पाँच कणों की भी कैसी वृद्धि की है"। बहू बोली-"पिताजी, अपने ये पाँचों कण ग्रहण कीजिए।" बहू की बात सुन सेठजी ने सब के सामने कहा-'मेरी यह बहू मेरे घर के सर्वस्व की स्वामिनी होवे। सब घर के मनुष्यों को इसी की आज्ञानुसार चलना चाहिए। जो उसकी आज्ञा का उल्लङ्घन करे वह घर में नहीं रह सकेगा।" सेठजी की बात सभी ने मस्तक पर चढ़ाई/स्वीकार की अनन्तर प्रफुल्लित आनन्द में विभोर धन श्रेष्ठी धीरे-धीरे चिन्ता का त्याग कर सच्चे धर्म को अलङ्कार रूप करने लगा।
शिष्यों! मैंने तुम्हें यह दृष्टान्त कहा है। अब सिद्धान्त में कहा हुआ इसका रहस्य भी सुन लो। दृष्टान्त में जो राजगृह नगर कहा है वह इस लोक में नरभव है। धन श्रेष्ठी को विचार करने में चतुर आचार्य समझो। चार बहुएँ बताई सो चार प्रकार के शिष्य समझो। पाँच धान के दाने बताये हैं वे पाँच महाव्रत हैं। स्वजन रिश्तेदार बताये हैं वह संघ है। सेठ ने उनके सामने बहुओं को पाँचपाँच दाने शिष्यों को दिये, इसका मतलब यह कि आचार्य ने संघ के समक्ष पाँच महाव्रत दिये। उनमें से जैसे उज्झिका ने दाने फैंक दिये, इस प्रकार जो पाँच महाव्रतों का त्याग करता है वह इस लोक और परलोक-दोनों में दुखों का पात्र हो जाना है। जैसे भक्षिका ने दाने खा लिये, इसी प्रकार कितनेक ढोंगी
तृतीय प्रस्ताव
व्रतदृष्टान्त