________________
कुवलयमाला-कथा
[89] प्रकार यत्न से इन्हें सम्हाले रखना चाहिए। जब श्वसुर माँगेंगे, तब दे दूंगी। ऐसा विचार कर उसने वे दानें अपने गहनों की डिबिया में साफ कपड़े में बाँधकर रख छोड़े। वह उन दानों को देवता की तरह तीनों समय सँभालती थी।
इसके अनन्तर सेठ ने चौथी रोहिणी बहू को बुलाया। उसके हाथ में भी धान के पाँच कण(दाने) देकर उसने कहा "पुत्री! जब तुझसे ये दानें माँगू तब मुझे ये दे देना।" दानों को ले एकान्त में जा बुद्धिमती रोहिणी ने सोचा'मेरे ससुर बहुत ही चतुर हैं, वे बुद्धि में वाचस्पति जैसे हैं, महाजनों में मुखिया हैं और नाना प्रकार के शास्त्रों में प्रवीण हैं। इसलिए उनके दिये हुए इन पाँच दानों की वृद्धि करनी चाहिए।' उसने मन में ऐसा विचार कर वे पाँचों दाने अपने पिता के घर भेज दिये। अपने भाइयों को भी उसने कहला भेजा कि इन कणों को अपने शालिकणों की तरह प्रतिवर्ष बरसात आने पर किसानों द्वारा जुदा बुनाकर इनके बढ़ाने को यत्न करना। जब वर्षाऋतु आई तो रोहिणी के भाइयों ने उसके कहलाने से उन दानों को जल की किनारे बो दिया। वे शालि कण उगे, स्तम्ब रूप हुए और शालिकणों से शोभा पाने लगे। जब उनमें से दाने निकाले गये तो एक प्रस्थ दाने निकले। दूसरे वर्ष में उन सब को बो दिया तो कितने ही आढ़क प्रमाण हो गये। चौथे वर्ष में सौ खारी प्रमाण हुए और पाँचवें वर्ष एक लाख पल्य।
___ पाँच वर्ष बीत गये। धन श्रेष्ठी ने एक दिन फिर पहले जैसा महान् उत्सव मनाने के लिए सर्व सम्बन्धियों को निमन्त्रण दिया। बाद में सब से बड़ी बह उज्झिका को बुलाकर सेठजी बोले-"वत्से! मैंने उस दिन पाँच शालि के दाने दिये थे वे वापस दो।" इतना सुनकर वह तुरन्त घर में गयी और शालि के पाँच दाने लाकर सेठजी के हाथ में रख दिये। दाने लेकर अपनी सौगन्ध दिलाकर सबके सामने उसने बहू से पूछा-"वत्से! सच बताओ ये वही शालिकण हैं या दूसरे? वह बोली- "पिताजी! वे कण तो मैं ने फेंक दिये थे।" यह सुनकर सेठजी ने सब के सामने स्पष्ट कहा-“आप लोग कहेंगे कि धनसेठ ने यह अच्छा नहीं किया, पर इस दुष्ट बहू ने मेरे दिये हुए शालिकण फेंक दिये हैं, पर उसका फल मैं इसे अवश्य चखाऊँगा" इतना कहकर उसने आज्ञा दी कि उज्झिका आज से छगणादि परित्याग करे। इसके बाद उसने दूसरी
व्रतदृष्टान्त
तृतीय प्रस्ताव