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पालन, गुरु से धर्ममार्ग ज्ञात करना, जीवन भर गुरु का सम्मान करना आदि हमचंद्र के अनुसार धर्म के प्रमुख अंग हैं। इस तरह त्रिषष्टिशलाकपुरुषचरित, पर्व-७ में गुरुमहिमा पर सम्यक् बल दिया गया है
आसने चासयामास तं मुनिं स्वयमर्पिते। प्रणम्य च दशग्रीव : स्वयमुर्त्यामुपाविशत ॥ B लज्जानम्राननः सोडपि नमाम पितरं मुनिम्।" गुरुर्धर्मोपदेष्टैव श्रुतिधर्मात्मकैव च। द्वयमप्यन्यथा कुर्वन् मित्र मा पापमर्जय ।। 80
इस प्रकार त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व-७ का दार्शनिक अन्वेषण करने पर ज्ञात होता है कि हेमचंद्र ने स्थान-स्थान पर आध्यात्मिक विचारों के साथ जैन दर्शन का सुर भी अप्रत्यज्ञ रुप से कृति में समाहित किया है । सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान तथा सम्यक् चरित जैन दर्शन के आधार बिंदु है परंतु इस कृति में जैन आचार्य ने अपने दार्शनिक विचार संकेतात्मक शैली में ही सूक्ष्म रुप में प्रस्तुत किए हैं। पुनर्जन्म, कर्म, आत्मा आदि पर अल्प विचार दिए हैं, परंतु तपस्या, अहिंसा, स्वर्ग-नरक जैसी धारणाओं पर हेमचंद्र ने व्यापक व विस्तृत विचार प्रस्तुत किए हैं।
वैसे दार्शनिक विचारों में हेमचंद्र ने अपने पूर्ववर्ती जैन रामकथाकारों का अनुकरण नहीं किया है। क्योंकि जैनाचार्य रविणेश ने तो अपने पद्मपुराण में जैनधर्म दर्शन का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है।
__ विश्व के किसी भी विशुद्ध धर्म अध्यात्ममय जीवन-दर्शन की गहराई में उतरने से प्रतीत होता है कि वहाँ एक अजीब-सा साम्य है, एकता तथा निर्विवाद समभाव है। यह एकत्व ही उस परम पिता परमात्मा की ओर उन्मुख करता है। पर उपरी सतह सांप्रदायिक जीवन दर्शन की सतह में सागर सी अनेक लहरों का सा वैभिन्न स्वर बढ़ता भी जाता है। अनेक धर्मग्रंथों के अवलोकन से यह बात स्पष्ट होती है।
: संदर्भ-सूची: १. तुलसी का शिक्षा दर्शन : डॉ. शंभूलाल शर्मा, पृ. २ २. भारतीय दर्शन की रुपरेखा : पं. बलदेवप्रसादमिश्र, पृ. १८ ३. व्युत्पत्ति-दृश्यतेऽनेनेतदर्शनम्'-दर्शन का कार्य है दृष्टिगोचर व
स्थूल दृष्टि से परे है उन दोनों को देखो, अंग्रेजी के फिलोसफी शब्द की उत्पत्ति लेटिन शब्द फिलोसफी से हुई इसका अर्थ है-ज्ञान से प्रेम। भारतीय दर्शन भी इसी तथ्य को स्वीकारता है-"नाहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते"
(गीता - ४/३८)। ४. Indian Philosophy. Vol - II. P. 770 जैन धर्म का प्राणः पं. मखुलाल संघवी. प. २०
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