________________
सद विमृश्य कर्तुस्टेडप्यविमुश्य विद्यापिता ।
मन्ये भदभाग्यदोषेम निदेषिस्तवं सदाव्यासे । 67
1
अहिंसाः परमो धर्मः जैन दर्शन का मूल मंत्र है। आज भी हिन्दुस्थान के कोने-कोने में जैनों द्वारा स्थापित गौशालाएँ एवं मूक पशुशालाएँ खोली हुई हैं जिनमें पशुओं का रक्षण - पोषण उपयुक्त सूत्र को प्रमाणित करता है हेमचंद्र ने पशु वध का विरोध किया है। हिंसा का फल घोर नरक बताया गया है। हेमचंद्र कहते हैं कि पशुओं का रक्षण करना धर्म का अंग है, न कि पशुओं का वध करना । हालांकि सभी धर्म अहिंसा में विश्वास करते हैं परंतु जैन धर्म उस सिद्धांत पर अन्य धर्मों से एक कदम आगे हैं।
धर्मः प्रोक्तोह्यहिंसात्ः सर्वज्ञैस्त्रिजागद्वितैः । पशुहिंसात्मकाद्यज्ञात स कथम् नाम जायताम्। क्रव्यादतुल्या ये कुर्युर्यज्ञं छागवधादिना ते मृत्वा नरके घोरे तिष्ठेयुः दुखिनश्चिरम् । घटप्रभृतिदिव्यानि वर्तन्ते हन्त सत्यतः सत्याद् वर्षति पर्जन्य सत्यातसिद्धयंति देवताः । मद्यमासं परीदार प्रधानं धर्मः । "
69
68
यज्ञेवधाय चानीतान् सैनिकेरिव तद्विजैः ।
पशुनारटतोडपस्यं पाशबद्धाननाग्रसः ॥ 72
संत व सत्संग की महिमा : जैन रामायण में हेमचंद्र ने सज्जनो के ग्रंथों का बखान किया है। सज्जनों के उपकारी साधु वंदनीय होते हैं। सज्जन साधुओं
प्रेमभाव से आदर व सम्मान करते हैं । संत लोग किसी के दुःख को देख नहीं सकते अर्थात दुःखी आत्माओं के उपकार का इन्तजार ही उनका जीवन धर्म बताया गया है। संतों की उपस्थिति में उनके सभी संगी सुखद जीवन व्यतीत करते हैं। संतो को नम्रता से प्यार होता है, अभिमान उन्हें स्पर्श नहीं करता ।
74
प्राग्जन्म सोऽवधेर्ज्ञात्वाम्येत्यावंदिष्ट तं मुनिम् । वंदनीयः सतां साधुर्ह्यपकारी विशेषतः । 73 वंदित्वा तं महासाधुमहामान्योपकारिणम् तददुःखदुःखित इव तदा चास्तमगाद्रविः । सन्तः सतां न विपदं विलोकयितुमीश्वराः ॥ नृपतिर्मोचयामास धृतान्र्वान्दरिपुनपि को वा न जीवति सुखं पुरुषोत्तमजन्मनि । संतो संगो हि पुण्यतः । ”
75
76
गुरु भक्ति : जैन धर्म में गुरु की महिमा सर्वसिद्ध है। हेमचंद्र ने गुरु के लिए साधु शब्द प्रयुक्त किया है। क्योंकि जैन धर्म में दीक्षित होने वाला प्रत्येक साधु गुरुवर होता है । गुरु से ज्ञानोपदेश सुनना, गुरु की आज्ञा का
63